उत्सव के रंग...

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। "उत्सव के रंग" ब्लॉग का उद्देश्य पर्व-त्यौहार, संस्कृति और उसके लोकरंजक तत्वों को पेश करने के साथ-साथ इनमें निहित जीवन-मूल्यों का अहसास कराना है. आज त्यौहारों की भावना गौड़ हो गई है, दिखावटीपन प्रमुख हो गया है. ऐसे में जरुरत है कि हम अपनी उत्सवी परंपरा की मूल भावनाओं की ओर लौटें. इन पारंपरिक त्यौहारों के अलावा आजकल हर दिन कोई न कोई 'डे' मनाया जाता है. हमारी कोशिश होगी कि ऐसे विशिष्ट दिवसों के बारे में भी इस ब्लॉग पर जानकारी दी जा सके. इस उत्सवी परंपरा में गद्य व पद्य दोनों तरह की रचनाएँ शामिल होंगीं !- कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव (ब्लॉग संयोजक)

गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

अनुभव और संकल्प से रचें नया वर्ष-2016

नए साल की शुरूआत पर कुछ नया सोचें, नया लिखें, नया करें, नया कहें और नया रचें। प्रश्न है नया हो क्या? क्या कलेण्डर बदल देना ही नयापन है? पर मूल में तो सबकुछ कल भी वही था, आज भी वही है और कल भी वही होगा। जीवन का भी यही अन्दाज है-जो था, जो है, जो होगा, बस, सबकी संयोजना, संकल्पना, व्यवस्था के बदलाव का ही एक नाम है- नया जीवन, नया वर्ष और नयी शुरूआत। बीते कल के अनुभव और आज के संकल्प से भविष्य को रचें। तभी सार्थक होगा नए वर्ष की अगवानी का यह पल-यह अवसर।

 नए वर्ष का स्वागत हम इस सोच और संकल्प के साथ करें कि हमें कुछ नया करना है, नया बनना है, नये पदचिह्न स्थापित करने हैं। बीते वर्ष की कमियों पर नजर रखते हुए उन्हें दोहराने की भूल न करने का संकल्प लेना है। सबसे जरूरी है स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार। दुनिया में सबसे बड़ा आश्चर्य है अपने आपको नहीं जानना। आदमी अपने आपको नहीं जानता, अपने आपको नहीं देखता, यह सबसे बड़ा आश्चर्य है। यह प्रश्न महाभारतकाल में भी पूछा गया था-‘‘किमाश्चर्यमतः परम्।’’ दूसरों को जानने वाला आदमी अपने आपको नहीं जानता, दूसरों को देखने वाला स्वयं को नहीं देखता, क्या यह कम आश्चर्य है? प्रसिद्ध लोकोक्ति है कि अपनी बुद्धि से साधु होना अच्छा, पराई बुद्धि से राजा होना अच्छा नहीं। हजारों-हजारों मीलों की दूरी पर होने वाली घटनाओं और परिवर्तनों को जानने वाला आदमी अपने भीतर घटित होने वाली घटनाओं और परिवर्तनों को नहीं जानता, क्या यह कम आश्चर्य है? बहुत बड़ा आश्चर्य है। इसी सन्दर्भ में महान् दार्शनिक गेटे का कथन है कि यदि बात तुम्हारे हृदय से उत्पन्न नहीं हुई है तो तुम दूसरों के हृदय को कदापि प्रसन्न नहीं कर सकते।

नय वर्ष की अगवानी में सबसे कठिन काम है-दिशा-परिवर्तन। दिशा को बदलना बड़ा काम हैं आदमी दिशा नहीं बदलता, दिशा वही की वही बनी रहती है। आदमी एक ही दिशा में चलते-चलते थक जाता है, ऊब जाता है। किन्तु दिशा बदले बिना परिवर्तन घटित नहीं होता। एमर्सन का कहा हुआ है वे विजय कर सकते हैं, जिन्हें विश्वास है कि वे कर सकते हैं। जीवन की दिशा को बदलना बड़ा काम है। जीवन की दिशा वे ही बदल सकते है जो बदलने की चाहत रखते हैं। यदि जीवन की दिशा बदल जाती है तो सब कुछ बदल जाता है। जीवन की दिशा बदलती है अपने आपको जानने और देखने से। महान् क्रांतिकारी श्री सुभाषचन्द बोस का मार्मिक कथन है कि जिस व्यक्ति के हृदय में संगीत का स्पंदन नहीं है, वह चिंतन और कर्म द्वारा कदापि महान नहीं बन सकता।

स्वयं से स्वयं के संवाद न होने के कारण ही बुराइयों का चक्र चलता रहता है। वह कभी नहीं रुकता। आदमी बुराई करता है, पाप का आचरण करता है। प्रश्न होता है, वह पाप का आचरण क्यों करता है? श्रीकृष्ण ने इसका जो उत्तर दिया वह आज भी उतना ही मूल्यवान है, जितना वह उस समय मूल्यवान था। उन्होंने कहा-आदमी को पाप में धकेलने वाले वह शत्रु हैं-काम और क्रोध। क्रोध ज्ञान पर पर्दा डालता है। ऐसी माया पैदा करता है कि आदमी समझ ही नहीं पाता कि वह पाप कर रहा है, आदमी में गहरी मूच्र्छा और मूढ़ता पैदा हो जाती है और तब वह जानता हुआ भी नहीं जानता, देखता हुआ भी नहीं देखता। उसमें बुरे और भले का विवेक ही समाप्त हो जाता है और तब वह न करने योग्य कार्य भी कर लेता है। शेख सादी भी हमें स्वयं से स्वयं या स्वयं को परमात्मा से जोड़ने की सलाह देते हैं कि परमेश्वर देखता है और छुपाता है। पड़ोसी अपनी आंखों से देखता नहीं, तो भी चिल्लाता है। 

अक्सर दुःशासन, दुर्योधन, जरासंध, कंस का योग मिले तब भी हंसना और युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, कृष्ण का योग मिले तब भी मुस्कुराना। यानी सुख-दुख में सम रहना। जीवन में आने वाली हर समस्या की चट्टानों को ठोकरों से हटाते चले, हवा से उड़ाते चले, एक दिन सफलता के शिखर पर जरूर प्रस्थित होंगे। कष्टों से क्या डरना है? जो जीवन को एक चुनौती मानते हैं वे हर मोर्चें में कामयाबी पाते हैं, सफलता उनके चरण चूमेती है। नये वर्ष में कुछ ऐसी ही सोच के साथ आगे बढ़ने के लिये संकल्पित हो।

आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार-सहन करो, सफल बनो। श्रम करो, सफल बनो। सेवा करो, सफल बनो। संयम करो, सफल बनो। स्वभाव में रमण करो, सफल बनो। गांधीजी के अनुसार-बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो। सकारात्मक सोच जीवन की सफलता का द्वार है। जेम्स एलन के कथानुसार सुविचारों से सुफल उपजते हैं और कुविचारों से कुफल। मेरी दृष्टि में अच्छा सोचो, अच्छा देखो, अच्छा बोलो, अच्छा सुनो और अच्छा करो, सबके प्रति अच्छे भाव रखो, सफलता जरूर मिलेगी। सेवा की मिसाल मदर टेरेसा ने कहा भी  है कि मीठे बोल संक्षिप्त और बोलने में आसान हो सकते हैं, लेकिन उन की गूँज सचमुच अनंत होती है।

जीवन की सफलता के लिए जरूरी है-मस्तिष्क में आइस फैक्टरी और जुबां पर शूगर फैक्टरी लगे। जो धैर्य, बुद्धि, संकल्प, श्रम की शक्ति से संपन्न होता है, वही सफलता के शिखर पर आरूढ़ हो सकता है। प्लूटार्क के अनुसार क्रोध बुद्धि को घर से बाहर निकाल देता है और दरवाजे पर चटकनी लगा देता है। जीवन की सार्थकता सदा मुस्कुराते रहने में ही है और इसी से नयावर्ष सराबोर बने, ऐसा प्रयत्न करना चाहिए। 

हम स्वयं अपने भाग्य के कत्र्ता-धर्ता हैं, सुख-दुःख के कर्ता-धर्ता हैं और हम स्वयं अपने नियंता- निर्माता है। कोई दूसरा कत्र्ता नहीं है। कोई दूसरा नियंता नहीं है। भगवान महावीर के अनुसार हम स्वयं अपने भाग्य के विधाता है। हमारे भाग्य का विधाता कोई दूसरा नहीं है। हमारे भाग्य की बागडोर हमारे हीे हाथ में है। दूसरा कोई उसे थामे हुए नहीं है। न किसी के आगे गिडगिडाओ और न किसी पर दोषारोपण करो। कभी भी यह न सोचो कि अमुक आदमी ने हमारे भाग्य को बिगाड़ दिया। हम अपनी नेक-नियति से अपने भाग्य के बुरे-से-बुरे क्षणों को सुखद बना सकते है। जरूरी है अपने आचरण को शुद्ध और पवित्र बनाने की। हमें जीवन को नये आयाम देने और कुछ हटकर करने के लिये अपना नजरिया बदलना होगा। अंधेेरों से लड़ने के लिये गली और मौहल्ले के हर मुहाने पर नन्हें-नन्हें दीपक जलाने होंगे। साहसी फैसला लेने के लिए अपनी अंतरात्मा की आवाज सुननी होगी। कोरे पत्तों को नहीं जड़ों को सींचने से समस्या का समाधान होगा।
जीवन को सफल बनाने के लिये यह आवश्यक है कि आप स्थिति का सही विश्लेषण करके, उसके संदर्भ में सही पृष्ठभूमि बनाएं। हम जो भी महत्वपूर्ण निर्णय करने जा रहे हैं, यदि उनके संदर्भ में हमें पृष्ठभूमि की सही जानकारी नहीं है तो हमारे कार्य करने की दिशा गलत हो सकती है। एक सफल जीवन का निर्वाह करने के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने भीतर ऐसे गुणों का विकास करें, जिनके द्वारा सभी को एक साथ लेकर चलने की कला में दक्षता प्राप्त कर सके। इसके लिए सबसे पहले हमें स्वयं को तैयार करना होगा। जब तक हम दूसरों का सम्मान नहीं करेंगे, तब तक दूसरे भी हमारे प्रति आदर का भाव नहीं रखेंगे। मानवीय गुणों के विकास के बिना, आप अपने आपको समाज में प्रतिष्ठापित नहीं कर सकते। समाज में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जिसके विरोधी न हों। महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हम अपने कार्यों के द्वारा समर्थक अधिक बना रहे हैं या विरोधी।

जिन्दगी को एक ढर्रे में नहीं, बल्कि स्वतंत्र पहचान के साथ जीना चाहिए। जब तक जिंदगी है, जिंदादिली के साथ जीना जरूरी है। बिना उत्साह के जिंदगी मौत से पहले मर जाने के समान है। उत्साह और इच्छा व्यक्ति को साधारण से असाधारण की तरफ ले जाती है। जिस तरह सिर्फ एक डिग्री के फर्क से पानी भाप बन जाता है और भाप बड़े-से-बड़े इंजन को खींच सकती है, उसी तरह उत्साह हमारी जिंदगी के लिए काम करता है। इसी उत्साह से व्यक्ति को सकारात्मक जीवन-दृष्टि प्राप्त होती है। 

एक बुद्धिमान व्यक्ति अपने गांव के बाहर बैठा हुआ था। एक यात्री उधर से गुजरा और उसने उस व्यक्ति से पूछा- ‘इस गांव में किस तरह के लोग रहते हैं, क्योंकि मैं अपना गांव छोड़कर किसी और गांव में बसने की सोच रहा हूं।’ तब उस बुद्धिमान व्यक्ति ने पूछा-‘तुम जिस गांव को छोड़ना चाहते हो, उस गांव में कैसे लोग रहते हैं?’ उस आदमी ने कहा-‘वे स्वार्थी, निर्दयी और रूखे हैं।’ बुद्धिमान व्यक्ति ने जवाब दिया-‘इस गांव में भी ऐसे ही लोग रहते हैं।’

कुछ समय बाद एक दूसरा यात्री वहां आया और उस बुद्धिमान व्यक्ति से वही सवाल पूछा। बुद्धिमान व्यक्ति ने उससे भी पूछा-‘तुम जिस गांव को छोड़ना चाहते हो, उसमें कैसे लोग रहते हैं?’ उस यात्री ने जवाब दिया-‘वहां लोग विनम्र, दयालु और एक-दूसरे की मदद करने वाले हैं।’ तब बुद्धिमान व्यक्ति ने कहा-‘इस गांव में भी तुम्हें ऐसे ही लोग मिलेंगे।’

यह कहानी इस बात की प्रेरणा देती है कि जैसी हमारी जीवन दृष्टि होगी, दूसरे लोग भी हमें वैसे ही दिखाई देंगे। यदि हम अपनी प्रवृत्ति में सकारात्मक जीवन दृष्टि विकसित करें तो हमें दूसरों में खूबियां अधिक दिखाई देने लगेंगी। यदि हमारे लिए नकारात्मक जीवन दृष्टि विकसित होने लगे, तो हमें दूसरों में खामियां अधिक नजर आने लगेंगी।

इसलिये एक नये एवं आदर्श जीवन की ओर अग्रसर होने वाले लोगों के लिये महावीर की वाणी है-‘उट्ठिये णो पमायए’ यानी क्षण भर भी प्रमाद न करे। प्रमाद का अर्थ है-नैतिक मूल्यों को नकार देना, अपनांे से पराए हो जाना, सही-गलत को समझने का विवेक न होना। ‘मैं’ का संवेदन भी प्रमाद है जो दुख का कारण बनता है। प्रमाद में हम अपने आप की पहचान औरों के नजरिये से, मान्यता से, पसंद से, स्वीकृति से करते हैं जबकि स्वयं द्वारा स्वयं को देखने का क्षण ही चरित्र की सही पहचान बनता है। इसलिए मनुष्य की परिस्थितियां बदलें, उससे पहले उसकी प्रकृति बदलनी जरूरी है। बिना आदतन संस्कारों के बदले न सुख संभव है, न साधना और न साध्य।हम कोशिश करें कि ‘जो आज तक नहीं हुआ वह आगे कभी नहीं होगा’ इस बूढ़े तर्क से बचकर नया प्रण जगायें। बिना किसी को मिटाये निर्माण की नई रेखाएं खींचें। यही साहसी सफर शक्ति, समय और श्रम को सार्थकता देगा। 


 (ललित गर्ग)
ई-253, सरस्वती कुंज  अपार्टमेंट
25 आई. पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92

रविवार, 16 मार्च 2014

होली के रंग कुछ कहते हैं



रंग हमारे जीवन में बड़े महत्वपूर्ण हैं। ये हमारे स्वास्थ्य और मूड को सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं। हमारे आसपास यूं तो कई रंग हैं, पर ये चाहे-अनचाहे हम पर अपना असर डालते ही हैं। दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने इस मामले पर कई शोध किए हैं और पाया है कि रंग इतने प्रभावशाली हैं कि बीमारियों की रोकथाम तक में सहायक हैं। तभी तो कलर थेरेपी आज इतनी कारगर सिद्ध हो रही है। तो आप भी अपने जीवन को इन रंगों को भर लीजिए और उठाइए इन रंगों का लाभ:

प्लेट में सजे नए रंग

लाल रंग के फल-सब्जियों में यह रंग लाइकोपीन नाम के पोषक तत्व के कारण आता है। यह कैंसर की रोकथाम में सबसे अधिक कारगर है। इसके लिए सेब, स्ट्राबेरी, लाल मिर्च, बेरी, टमाटर, तरबूज आदि का सेवन करें। संतरी या पीले रंग वाली फल-सब्जियां बेटा-केरोटीन से युक्त होती हैं। यह आंखों और त्वचा के लिए अच्छे माने जाते हैं। गाजर, आम, शकरकंद, कद्दू, पपीता, पाइनएपल, पीच आदि को भी अपनी डाइट का हिस्सा बनाएं। हरे रंग के फल-सब्जियों में एंटीऑक्सिडेंट्स और फोटोकेमिकल्स भरपूर मात्रा में होते हैं, जो कैंसर की रोकथाम में सहायक हैं। इसके लिए ब्रोकली, पालक, बंदगोभी, शिमला मिर्च, बीन्स आदि का सेवन करें।

वार्डरोब भी रंगो भरा हो

पश्चिम में लाल रंग को प्रेम का प्रतीक माना जाता है। इसे सेक्सुअल कलर माना जाता है। लेकिन हमारे देश में यह रंग मां दुर्गा का रंग है। उन्हें हमेशा लाल रंग की साड़ी में ही दिखाया जाता है। यह पवित्रता का सूचक है। इसे विवाह के लिए उपयुक्त माना जाता है। लाल रंग का सिंदूर भी तो पति-पत्नी के मजबूत रिश्ते का सूचक होता है। लिपस्टिक, नेल पॉलिश में इसका प्रयोग लोकप्रिय है। इसे पहनने से आप भीड़ से अलग नजर आएंगी।

पीला रंग उल्लास और ऊर्जा का प्रतीक है। पर इस रंग की खासियत है इसका हीलिंग पॉवर। हल्दी जो पीली होती है, उसे हमारे देश में सौंदर्य बढ़ाने के लिए प्रयोग किया जाता रहा है। इससे दिमाग अधिक क्रियाशील रहता है। यह रंग ध्यान आकर्षित करता है। आप पीला रंग न पहनना चाहें तो किसी अन्य रंग के साथ कांबीनेशन में इसे पहन सकती हैं।

नीला रंग तो शक्ति और जीवन का प्रतीक है। चूंकि पानी भी पारदर्शी होता है इसलिए नीले रंग को पारदर्शी रंग माना जाता है। भगवान कृष्ण का यह मनपसंद रंग रहा है और इस साल यह रंग सबसे ज्यादा फैशन में है। तो इस रंग को अपने वॉर्डरोब का हिस्सा बनाने से हिचके नहीं। इस रंग को पहनकर आप स्टाइलिश भी दिखेंगी और खूबसूरत भी।

हरा रंग प्रकृति का रंग है। यह आंखों को सुकून प्रदान करता है। आप गर्मी के मौसम में हरा रंग खूब पहनें। 

ये भी आजमा सकती हैं

आप एक्सेसरीज के रूप में भी तरह-तरह के रंगों को अपने वॉर्डरोब का हिस्सा बना सकती हैं। आप एक गाढ़े रंग का बैग लें। ऐसा बैग जो आपकी पर्सनैलिटी से सूट करता हो। इस समय फैशन में नीला, ब्राइट ब्राउन और काला रंग है। गर्मियां आ रही हैं। इसलिए आपका सनग्लास ज्वेल टोन शेड वाला जैसे पर्पल, ब्ल्यूबेरी या  आरेंज रंग में हो सकता है। पैंट्स, लैगिंग्स, स्कर्ट आदि के साथ ब्राइट रंग के सैंडिल्स पहनें। आजकल लांग बूट्स भी फैशन में हैं। रंगों के साथ प्रयोग करने में हिचके नहीं। हिचक टूटेगी और आप फैशनेबल दिखेंगी।

जीवन में ऐसे भरे नए रंग

अगर काम की व्यस्तता के बीच आप दोनों एक-दूसरे को समय नहीं दे पाते, हैं तो एक दिन सारे काम छोड़कर बाहर घूमने जाएं। सिर्फ आप दोनों। क्योंकि आपको एक-दूसरे की पसंद-नापसंद पता है इसलिए सरप्राइज प्लान कर सकती हैं। ज्यादा कुछ नहीं करना चाहती हैं तो फिल्म देखने और साथ शॉपिंग करने से भी बात बन सकती है। एक-दूसरे से जब भी बात करें, तो उसमें शिकवे-शिकायतों को न आने दें। हंसी-मजाक हो, तारीफ हो। अगर कभी कोई बात बुरी लगती है तो उसे हल्के में लें। जीवन को भारी-भरकम बनाकर जीने से क्या फायदा? दिल में कोई बात है तो उसे हल्के माहौल में शेयर करें। रोमांस न खत्म होने दें। प्यार बना रहेगा तो ही रिश्ता खूबसूरत लगेगा। इसलिए रोमांस के लिए समय तो आपको खुद ही निकालना होगा। साथ बैठकर बातें करें। हर मसले पर बात करें। भविष्य की योजनाओं से लेकर आज की कशमकश तक। अगर बातचीत होती रही तो एक-दूसरे को ज्यादा समझेंगी और रिश्ते में दूरियां नहीं आएंगी। नौकरीपेशा हैं तो परिवार के साथ भी इस साल ज्यादा समय बिताएं। बच्चों के साथ घूमने जाएं और उनसे बातें करें। अगर बच्चे बड़े हैं तो आप उनसे अपनी समस्याओं को शेयर कर सकती हैं। इससे बच्चे और आपके बीच का रिश्ता और मजबूत होगा। आपसी विश्वास बढ़ेगा और जिंदगी पहले से कहीं ज्यादा रंगीन हो जाएगी।


रंगों का महत्व
लाल रंग को सभी रंगों में से सबसे अधिक चटक रंग माना जाता है। व्यायाम के समय इस रंग के कपड़े पहनने की सलाह दी जाती है क्योंकि यह स्फूर्ति प्रदान करने वाला रंग माना जाता है। लेकिन इस रंग के अत्यधिक प्रयोग के कई खराब परिणाम हो सकते हैं जैसे तनाव या गुस्सा। 

ज्यादातर स्माइली पीले रंग की ही होती हैं। इसका कारण यह है कि पीला रंग हमारे दिमाग में सेरोटोनिन नामक केमिकल बनने के लिए जिम्मेदार है, जिससे हम खुश रहते हैं। कई शोध यह साबित करते रहे हैं कि पीला रंग हमारी एकाग्रता को बढ़ाता है पर इसके अत्यधिक प्रयोग से हमें चक्कर आ सकता है और जहां इसका ज्यादा प्रयोग हुआ हो, वहां लोगों को अधिक गुस्सा आता देखा गया है। यह मेटाबॉलिज्म को बढ़ाता है।
नीले रंग का प्रयोग रचनात्मकता को बढ़ाता है। यह दिमाग में ऐसे केमिकल रिलीज करने में मददगार है, जिससे हम रिलैक्स होते हैं। यह भोजन का रंग नहीं है, इसलिए कई शोध यह साबित कर चुके हैं कि इस रंग का खाना परोसने पर लोगों को खाने की इच्छा ही नहीं हुई। यानी रचनात्मकता बढ़ाने के लिए इस रंग को अपनाएं।

काला रंग शक्ति और स्वामित्व का प्रतीक है। यह ज्ञान और बुद्धिमता को दर्शाने वाला है। यह फैशन इंड्रस्टी का प्रमुख रंग है। हालांकि इसे गुस्से वाला रंग माना जाता रहा है।

सफेद रंग को सबसे प्राकृतिक रंग माना जाता है। ज्यादातर बच्चों के उत्पाद इसी रंग में आते हैं। इसे मासूमियत और सफाई का प्रतीक माना जाता है। इस रंग को डॉक्टर प्रयोग करते हैं।

हरे रंग को प्रकृति का रंग माना जाता है। यह तनाव कम करने वाला और राहत देने वाला रंग है। यह हाइजीन और जल्द रिकवरी करने वाला माना जाता है इसलिए अधिकतर अस्पतालों में हरे रंग का प्रयोग दिखता है। आंखों को भी यह रंग सुकून देता है।

साभार : हिंदुस्तान 

रविवार, 3 नवंबर 2013

दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं


दीपावली पर्व पर आप सभी को शुभकामनाएँ। दीपावली दीये का त्यौहार है न कि पटाखों का। अत: दीपावली पर दीये जलाकर पर्यावरण को स्वच्छ रखें, न कि पटाखों और आतिशबाजी द्वारा इसे प्रदूषित करें। 

दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं। झिलमिलाते दीपों की आभा से प्रकाशित ये दीपोत्सव आपके जीवन में धन, धान्‍य, सुख और सम़द्वि  लेकर आये। दीप मल्लिका दीपावली हर व्यक्ति, प्राणी, परिवार, समाज, राष्ट्र और समग्र विश्व के लिए सुख, शांति, सम़द्वि व धन वैभव दायक हो। इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ दीपोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ !!

रविवार, 13 अक्तूबर 2013

सांस्कृतिक परंपरा का पर्व : कुल्लू दशहरा

दशहरे की धूम तो देश भर में है, लेकिन कुछ जगह के दशहरा अपनी खास पहचान के लिए प्रसिद्ध हैं। ऐसी ही खास पहचान है कुल्लू के दशहरे की, जहां इस दौरान पर्यटक दूर-दूर से आते हैं और इस मौके का आनन्द उठाते हैं। विजय दशमी से शुरू होकर सप्ताह भर बाद तक मनाया जाने वाला यह त्योहार सम्पूर्ण कुल्लू घाटी को उत्सव के रंग से सराबोर कर देता है। इस अवसर पर लगने वाले ऐतिहासिक मेले में कुल्लू की प्राचीन परंपरा, समृद्ध इतिहास और गौरवपूर्ण लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं। स्थानीय कलाकारों द्वारा प्रस्तुत सांस्कृतिक कार्यक्रम इस दौरान कुल्लू घाटी की खूबसूरती में चार चांद लगा देते हैं।

अंतरराष्ट्रीय है चमककुल्लू दशहरा अब अंतरराष्ट्रीय पहचान हासिल कर चुका है। इसके प्रति उत्साह सिर्फ स्थानीय लोगों में ही नहीं, बल्कि विदेशियों में भी देखने को मिलता है। यही वजह है कि इस अवसर पर कुल्लू घाटी में विदेशी सैलानियों का जमावड़ा लग जाता है। यहां काफी संख्या में भारतीय पर्यटक तो आते ही हैं, इस दौरान यहां अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, कनाडा और जर्मनी से भी काफी संख्या में पर्यटक आते हैं। दिलचस्प यह भी है कि विदेशी पर्यटक यहां के परिधान पहन कर मौके का भरपूर आनन्द उठाते हैं।

 होता है रामलीला का मंचनइस अवसर पर यहां धार्मिक अनुष्ठान तो होते ही हैं, मैदानी इलाकों में रामलीला का भी मंचन किया जाता है। इस अवसर पर लोकनृत्य, लोकगीत और विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों द्वारा भगवान राम की स्तुति की जाती है। 

पारंपरिक कला शिल्प की छटा 
कुल्लू दशहरा के अवसर पर धालपुर मैदान में स्थानीय कला-शिल्प के स्टॉल्स लगाए जाते हैं। अगर आपको स्थानीय क्राफ्ट पसंद हैं तो यहां से शाल जैसा दिखने वाला पट्टू (कुल्लू-महिलाओं का परंपरागत परिधान) भी ले सकते हैं और कुल्लू टोपियां, मफलर आदि भी। 


निकलती हैं शानदार झांकियां
कुल्लू दशहरे की एक खासियत है कि यह विजय दशमी के दिन से आरम्भ होकर अगले सात दिनों तक मनाया जाता है। दशहरा मेले का शुभारंभ देवी हिडिम्बा द्वारा किया जाता है। कुल्लू घाटी में हिडिम्बा का प्राचीन मंदिर स्थित है। दशहरा मेले की शुरुआत घाटी में आकर्षक तरीके से सजाई गई रघुनाथ जी की पालकी (रथ) की झांकी निकाल कर की जाती है। राजा का सुसज्जित घोड़ा जुलूस की अगवानी करता है। अन्य ग्रामीण देवी-देवता इस रथ के पीछे चलते हैं। बाद में रघुनाथ जी की पालकी को धालपुर मैदान में लाया जाता है। इस दौरान गीत-संगीत की स्वर लहरियां पूरी घाटी में गूंजती रहती हैं। 


भव्य होता है समापन
उत्सव के सातों दिन लोकनृत्य, लोकगीत और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम रहती है। त्योहार का छठा दिन ‘मुहल्ला’ कहलाता है। इस दिन लोग देवताओं की मूर्तियों को कंधों पर रख कर नाचते हैं। अगले दिन रधुनाथ जी के दरबार में अपनी हाजिरी देने के बाद सभी देवता आज्ञा लेकर अपने-अपने मूल स्थानों को लौट जाते हैं। सातवें दिन ‘लंका दहन’ का आयोजन होता है। व्यास नदी के तट पर घास-फूस से बनी लंका को हर्षोल्लास के साथ जलाया जाता है। वैसे तो इस अवसर पर मिट्टी के रावण की प्रतिमा का सिर धड़ से अलग करने की परंपरा भी चली आ रही है, लेकिन अब कुल्लू दशहरे में भी रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जलाने का चलन शुरू हो गया है। यानी आप इस मौके पर कुल्लू की खूबसूरत वादियों के साथ-साथ इस त्योहार को भी देख सकते हैं।


साभार : अशोक वशिष्ठ, हिन्दुस्तान 

बुधवार, 28 अगस्त 2013

'कृष्ण-जन्माष्टमी' पर्व की ढेरों बधाइयाँ


मानव जीवन सबसे सुंदर और सर्वोत्तम होता है। मानव जीवन की खुशियों का कुछ ऐसा जलवा है कि भगवान भी इस खुशी को महसूस करने समय-समय पर धरती पर आते हैं। शास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु ने भी समय-समय पर मानव रूप लेकर इस धरती के सुखों को भोगा है। भगवान विष्णु का ही एक रूप कृष्ण जी का भी है जिन्हें लीलाधर और लीलाओं का देवता माना जाता है।

कृष्ण को लोग रास रसिया, लीलाधर, देवकी नंदन, गिरिधर जैसे हजारों नाम से जानते हैं। भगवान कृष्‍ण द्वारा बताई गई गीता को हिंदू धर्म के सबसे बड़े ग्रंथ और पथ प्रदर्शक के रूप में माना जाता है। कृष्ण जन्माष्टमी कृष्ण जी के ही जन्मदिवस के रूप में प्रसिद्ध है।

मान्यता है कि द्वापर युग के अंतिम चरण में भाद्रपद माह के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को मध्यरात्रि में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। इसी कारण शास्त्रों में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी के दिन अर्द्धरात्रि में श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी मनाने का उल्लेख मिलता है। पुराणों में इस दिन व्रत रखने को बेहद अहम बताया गया है। इस साल जन्माष्टमी 28 अगस्त यानी आज है।


‘जन्‍माष्‍टमी’ के त्‍यौहार में भगवान विष्‍णु की, श्री कृष्‍ण के रूप में, उनकी जयन्‍ती के अवसर पर प्रार्थना की जाती है। हिन्‍दुओं का यह त्‍यौहार श्रावण (जुलाई-अगस्‍त) के कृष्‍ण पक्ष की अष्‍टमी के दिन भारत में मनाया जाता है। हिन्‍दु पौराणिक कथा के अनुसार कृष्‍ण का जन्‍म, मथुरा के असुर राजा कंस, जो उसकी सदाचारी माता का भाई था, का अंत करने के लिए हुआ था।


श्रीकृष्ण जी का जन्म मात्र एक पूजा अर्चना का विषय नहीं बल्कि एक उत्सव के रूप में मनाया जाता है।  इस उत्सव में भगवान के श्रीविग्रह पर कपूर, हल्दी, दही, घी, तेल, केसर तथा जल आदि चढ़ाने के बाद लोग बडे़ हर्षोल्लास के साथ इन वस्तुओं का परस्पर विलेपन और सेवन करते हैं।

जन्‍माष्‍टमी के अवसर पर पुरूष व औरतें उपवास व प्रार्थना करते हैं। मन्दिरों व घरों को सुन्‍दर ढंग से सजाया जाता है व प्रकाशित किया जाता है। उत्‍तर प्रदेश के वृन्‍दावन के मन्दिरों में इस अवसर पर  रंगारंग समारोह आयोजित किए जाते हैं। कृष्‍ण की जीवन की घटनाओं की याद को ताजा करने व राधा जी के साथ उनके प्रेम का स्‍मरण करने के लिए रास लीला की जाती है। इस त्‍यौहार को कृष्‍णाष्‍टमी अथवा गोकुलाष्‍टमी के नाम से भी जाना जाता है। बाल कृष्‍ण की मूर्ति को आधी रात के समय स्‍नान कराया जाता है तथा इसे हिन्‍डौले में रखा जाता है। पूरे उत्‍तर भारत में इस त्‍यौहार के उत्‍सव के दौरान भजन गाए जाते हैं व नृत्‍य किया जाता है।


महाराष्‍ट्र में जन्‍माष्‍टमी के दौरान, कृष्‍ण के द्वारा बचपन में लटके हुए छींकों (मिट्टी की मटकियों), जो कि उसकी पहुंच से दूर होती थीं, से दही व मक्‍खन चुराने की कोशिशों करने का उल्‍लासपूर्ण अभिनय किया जाता है। इन वस्‍तुओं से भरा एक मटका अथवा पात्र जमीन से ऊपर लटका दिया जाता है, तथा युवक व बालक इस तक पहुंचने के लिए मानव पिरामिड बनाते हैं और अन्‍तत: इसे फोड़ डालते हैं।

.....आप सभी को 'कृष्ण-जन्माष्टमी' पर्व की ढेरों बधाइयाँ !!

रविवार, 20 जनवरी 2013

पृथ्वी पर सबसे बड़ा धार्मिक उत्सव है कुम्भ मेला


कुम्भ मेला पृथ्वी पर सबसे बड़ा धार्मिक उत्सव है । यह प्रत्येक १२वें वर्ष पवित्र गंगा, यमुना एवं सरस्वती के संगम तट पर आयोजित किया जाता है । मेला प्रत्येक तीन वर्षो के बाद नासिक, इलाहाबाद, उज्जैन, और हरिद्वार में बारी-बारी से मनाया जाता है । इलाहाबाद में संगम के तट पर होने वाला आयोजन सबसे भव्य और पवित्र माना जाता है । इस मेले में लाखो की संख्या में श्रद्धालु सम्मिलित होते है । ऐसी मान्यता है कि संगम के पवित्र जल में स्नान करने से आत्मा शुद्ध हो जाती है । संगम कुम्भ और अर्धकुम्भ के दौरान नदी के किनारे विशाल शिविर लगाये जाते हैं ।
कुम्भ महोत्सव पौष मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होता है। कुम्भ महोत्सव प्रत्येक चौथे वर्ष नासिक, इलाहाबाद, उज्जैन, और हरिद्वार में बारी-बारी से मनाया जाता है। प्रयाग कुम्भ विशेष महत्व रखता है। प्रयाग कुम्भ का विशेष महत्व इसलिए है क्योंकि यह १२ वर्षो के बाद गंगा, यमुना एवं सरस्वती के संगम पर आयोजित किया जाता है। हरिद्वार में कुम्भ गंगा के तट पर और नासिक में गोदावरी के तट पर आयोजित किया जाता है। इस अवसर पर नदियों के किनारे भव्य मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें बड़ी संख्या में तीर्थ यात्री आते है।
 
प्रयाग कुम्भ अन्य कुम्भों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह प्रकाश की ओर ले जाता है ।यह ऐसा स्थान है जहाँ बुद्धिमत्ता का प्रतीक सूर्य का उदय होता है। इस स्थान को ब्रह्माण्ड का उद्गम और पृथ्वी का केंद्र माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि ब्रह्माण्ड की रचना से पहले ब्रम्हाजी ने यही अश्वमेघ यज्ञ किया था। दश्व्मेघ घाट और ब्रम्हेश्वर मंदिर इस यज्ञ के प्रतीक स्वरुप अभी भी यहाँ मौजूद है। इस यज्ञ के कारण भी कुम्भ का विशेष महत्व है।
 
कुम्भ और प्रयाग एक दूसरे के पर्यायवाची है। कुम्भ का शाब्दिक अर्थ कलश होता है। कुम्भ का पर्याय पवित्र कलश से होता है। इस कलश का हिन्दू सभ्यता में विशेष महत्व है ।कलश के मुख को भगवान विष्णु, गर्दन को रूद्र, आधार को ब्रम्हा, बीच के भाग को समस्त देवियों और अंदर के जल को संपूर्ण सागर का प्रतीक माना जाता है। यह चारों वेदों का संगम है। इस तरह कुम्भ का अर्थ पूर्णतः औचित्य पूर्ण है। वास्तव में कुम्भ हमारी सभ्यता का संगम है। यह आत्म जाग्रति का प्रतीक है। यह मानवता का अनंत प्रवाह है। यह प्रकृति और मानवता का संगम है ।कुम्भ ऊर्जा का स्त्रोत है। कुम्भ मानव-जाति को पाप, पुण्य और प्रकाश, अंधकार का एहसास कराता है। नदी जीवन रूपी जल के अनंत प्रवाह को दर्शाती है। मानव शरीर पञ्चतत्वों से निर्मित है यह तत्व हैं-अग्नि, वायु, जल, प्रथ्वी और आकाश ।संत कबीर ने इस तथ्य को बड़े सुन्दर तरीके से बताया है। हिमालय को देवो का निवास स्थान माना जाता है। गंगा का उद्गम हिमालय से ही हुआ है। गंगा जंगलों, पर्वतों, और समतल मैदानों से होते हुए अंतत: सागर में मिल जाती है। यमुना भी पवित्र मानी जाती है। यमुना को त्रिपथगा, शिवपुरी आदि नामों से भी जाना जाता है। गंगा ने सूर्यवंशी राजा सागर के पुत्रों को श्राप से मुक्त किया था। गंगा के जल को अमृत माना जाता है।
 
पहले कुम्भ को एक अवसर कहा जाता था लेकिन समय बीतने के साथ इसने एक महोत्सव का आकार ले लिया है । यह एक ऐसा धार्मिक और सांस्कृतिक पर्व है, जो पूरी दुनिया पर एक छाप छोड़ देता है, इस तरह का पर्व जो एक धर्म और संस्कृति के बारे में सोचता है. इस तरह का एक पर्व जिसकी संस्कृति विष्णुपदी गंगा है। पहले, इस पर्व का आकार छोटा था, लेकिन अब १२वीं सदी से यह पर्व सबसे बड़े पर्व में विकसित हो गया है। इसका फैलाव परेड ग्राउंड से त्रिवेणी बांध तक, दारागंज से नागवासुकी की सीमा तक, झूंसी (प्रतिष्ठान्पुरी ) से (अलर्कपुरी ) अरैल तक फैला हुआ है ।
 
कुम्भ या अर्धकुम्भ कोई साधारण पर्व नहीं है, यह ज्ञान, वैराग्य और भक्ति का पर्व है। इस पर्व में धार्मिक माहौल बड़ा ही अनुपम होता है । आप जिस भी शिविर में जायेंगे यज्ञ (धार्मिक बलिदान) के धुएं के बीच में वेद मंत्रों की आवाज सुनाई देती है । व्याख्या, पौराणिक महाकाव्य, प्रार्थना, संतों और साधु के उपदेश पर आधारित नृत्य महमोहक होते हैं । अखाड़ों की पारंपरिक जुलूस, हाथी, घोड़े, संगीत वाद्ययंत्र के बीच नागासंतों के शाही स्नान में तलवार (शाहीस्नान) , घोड़-दौड़ लाखों भक्तों को आकर्षित करती है। इस पर्व में विभिन्न धर्मों के धर्म-मुखिया हिस्सा लेते हैं । यह पर्व प्रयाग के सम्मान और गरिमा का पर्व है । यह लाखों कलाकारों के अत्यंत भक्ति का पर्व है । गरीबों और असहायों के भरण-पोषण की व्यवस्था यहाँ उचित ढंग से लिए जाती है । गंगा इस पर्व में सभी की माँ है और सभी उसके बेटे हैं।
 
" गंगेतवदर्शनातमुक्ति" इस भावना के वशीभूत होकर ही यहाँ इतनी भारी भीड़ एकत्रित होती है और इस पवित्र पर्व का आयोजन प्रयाग की पावन भूमि पर होता है । यह पर्व ईंटों और पत्थरों के घरों में नहीं बल्कि यह संगम की ठंड रेत पर आयोजित किया जाता है ।यह पर्व टैंटों के घरों के साथ मनाया जाता है। यह मानव भक्ति की एक कठिन परीक्षा है ।लोग पवित्र मन और पुण्य की भावना के साथ आते हैं. पाप का स्वतः ही अंत हो जाता है ।यहाँ गायदान, सोने का दान, गुप्तदान / भेंट, पितृ के लिए दान सहित सभी दान का प्रावधान है। यह पर्व पवित्रता का पर्व है ।विभिन्न धर्म सम्प्रदाय के साधु-संत,कलाकार इसमें सम्मिलित होते हैं ।यह स्थान एक छोटे भारत का रूप ले लेता है ।विभिन्न तरह की भाषा, वेश-भूषा, खान-पान इस पर्व पर एक साथ देखें जा सकतें हैं ।इस पर्व पर भारी संख्या में लोग बिना किसी आमंत्रण के पहुंचते हैं । साभार

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

विश्व की प्रथम रामलीला

महाकवि तुलसीदासजी सांसारिक बंधन से विरक्त होकर वैराग्य धारणकर रामधुन में लीन धार्मिक तीर्थस्थलों का भ्रमण करने ramlilaनिकल पड़े। पूजा पाठ, ध्यान - धर्म तथा आराधना में लीन राममय होकर भ्रमण करते हुए 1593 में वे अयोध्या पहुंच गये। प्रतिदिन भोर में ही सरजू तट पर पहुंचना, राम का ध्यान लगाना, जप - तप करना इत्यादि रामभक्त तुलसीदासजी की दिनचर्या थी।

उसी तट पर एक तपस्वी महासंत समाधिस्थ रहते थे। तुलसीदासजी प्रतिदिन उस समाधिस्थ संत को दूर से ही साष्टांग दंडवत कर अभिवादन करते थे। संत के प्रति श्रद्धा और भक्ति से ओत-प्रोत अपने मन में उनसे साक्षात्कार करने, आशीर्वाद लेने और ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा लिये तुलसीदासजी वापस चले जाया करते थे। एक दिन वह शुभ घड़ी आ ही गयी, जब संत समाधि से बाहर आये। उसी समय तुलसीदासजी ने साष्टांग दंडवत किया। तपस्वी संत ने तुलसीदास को देखकर मन ही मन पहचान लिया कि प्रभु ने सही व्यक्ति को मेरे पास भेज दिया है। तपस्वी संत ने तुलसीदास को अपने हाथों उठाया, आशीर्वाद दिया और संकेत किया कि मेरे साथ आओ। वे तुलसीदास को अपने साथ लेकर अपनी कुटिया में पहुंचे। उस कुटिया में राम की मूर्ति के अलावा मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं और कमंडल को फूलों से सजा कर रखा हुआ था। तपस्वी संत ने तुलसीदास से कहा कि ये मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं और कमंडल सभी कुछ तुमको सौंपता हूं। तुम वास्तव में प्रभु श्रीराम के उपासक हो इसीलिए प्रभु राम ने तुम्हें मेरे पास भेजा है। इस मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं और कमंडल को कोई सामान्य वस्तु न समझना, यह सभी प्रभु राम के स्मृति चिह्न हैं। यह धनुष-बाण कभी प्रभु राम के करकमलों में रह चुका है। इन खड़ाऊं और कमंडल को प्रभु राम के स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त है। यह मुकुट श्रीराम के सिर को संवार चुका है। प्रभु के आदेश से ही तुम यहां पधारे हो। मैं इस जीवन से थक चुका हूं। इन स्मृति चिह्नों तथा अमूल्य धरोहर को उचित स्थान, उचित संत और उचित रामभक्त को समर्पित करने की प्रतीक्षा में ही मैं समाधिस्थ रहता था। यह श्रीराम का दिव्य उपहार है। इस धरोहर तथा अमूल्य संपत्ति को लेकर तुम काशी जाओ। वहीं निवास करो। वहीं श्रीराम की आराधना करो। श्रीराम के जन्म से लेकर अंत तक की संपूर्ण घटनाएं साक्षात तुम्हारे मानसपटल पर अंकित हो जायेंगी। तुमसे तुम्हारे अपने राम मिल जायेंगे। तुम्हारे हाथों एक नयी रामायण लिखी जायेगी, तुम्हारी ही सरल लेखनी से रामलीला लिखी जायेगी जो जन-जन तक पहुंचेगी तथा रामलीला के नाम से विख्यात होगी।''
संत तुलसीदास के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली।

तुलसीदास महासंत के चरणों में गिर गये और साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और आज्ञाकारी शिष्य के रूप में कुछ दिन उन महासंत की छाया में रहने की अनुमति प्राप्त करने के लिए करबद्ध स्वीकृति मांगी। महासंत की शिक्षा-दीक्षा ने मानो तुलसीदासजी के मन के नेत्र खोल दिये। ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात, गुरु का आदेश पाकर वे काशी के लिए चल पड़े। साथ में राम, मन में राम, स्मृति में राम, राम ही राम।

1595 में तुलसीदासजी महासंत की आज्ञा के अनुसार काशी पहुंचे और अस्सीघाट पर रहने लगे। रात्रि में देखे गये स्वप्न, प्रात: उनको रामकथा लिखने की प्रेरणा देने लगे। रामचरितमानस का लेखन आरंभ हो गया। 1618-19 में यह पवित्र ग्रंथ पूरा हो गया। संत तुलसीदासजी दिव्य उपस्करों (मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं, कमंडल) को अपने साथ लेकर अपने कुछ शिष्यों के साथ नाव में बैठकर, तत्कालीन काशी नरेश से मिलने रामनगर गये। काशी नरेशजी संत तुलसीदासजी से मिलकर प्रसन्नता और श्रद्धा से भावविभोर हो गये। अपने सिंहासन से उठकर उन्होंने तुलसीदासजी का सम्मान किया तथा रामलीला करवाने का संकल्प किया।

ramlila21621 ई. में सर्वप्रथम अस्सीघाट पर नाटक के रूप में संत तुलसीदासजी ने रामचरित मानस के रूप में रामलीला का विमोचन किया। उसके बाद काशी नरेश ने रामनगर में रामलीला करवाने के लिए एक वृहद क्षेत्र में लंका, चित्रकूट, पंचवटी की रूपरेखा बड़े मंच पर अंकित करवाकर रामलीला की भव्य प्रस्तुति करवायी। प्रतिवर्ष संशोधन के साथ रामलीला होने लगी। रामनगर की रामलीला 22 दिनों में पूरी होती है। रामलीला का अंतिम दिन दशहरा का दिन होता है। इस दिन रावण का पुतला जलाया जाता है।

1626 ई. में महाकवि संत तुलसीदासजी ब्रह्मलीन हो गये। तुलसीदासजी की स्मृति में काशी नरेश ने रामनगर को राममय करके विश्व का श्रेष्ठतम रामलीला स्थल बना दिया है। आज भी रामनगर की रामलीला विश्वभर में प्रसिद्ध है। आज भी वह दिव्य उपस्कर (मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं, कमंडल) महाराज काशी के संरक्षण में प्राचीन बृहस्पति मंदिर में सुरक्षित हैं। वर्ष में सिर्फ एक बार भरत मिलाप के दिन प्रभु राम के मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं, कमंडल प्रयोग में लाये जाते हैं। तभी भरत मिलाप अद्वितीय माना जाता है। इस रामलीला को देखने के लिए देश-विदेश के पर्यटक रामनगर (वाराणसी) आते हैं।


मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

नारी-शक्ति के गरिमामय स्थान को दर्शाता : नवरात्र पर्व


नवरात्र हिन्दू धर्म ग्रंथ पुराणों के अनुसार माता भगवती की आराधना का श्रेष्ठ समय होता है। भारत में नवरात्र का पर्व, एक ऐसा पर्व है जो हमारी संस्कृति में महिलाओं के गरिमामय स्थान को दर्शाता है। वर्ष के चार नवरात्रों में चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ की शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक नौ दिन के होते हैं, परंतु प्रसिद्धि में चैत्र और आश्विन के नवरात्र ही मुख्य माने जाते हैं। इनमें भी देवीभक्त आश्विन के नवरात्र अधिक करते हैं। इनको यथाक्रम वासन्ती और शारदीय नवरात्र भी कहते हैं। इनका आरम्भ चैत्र और आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से होता है। अतः यह प्रतिपदा ’सम्मुखी’ शुभ होती है।
शारदीय नवरात्र
शारदीय नवरात्र आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिप्रदा से शुरू होता है। आश्विन मास में आने वाले नवरात्र का अधिक महत्त्व माना गया है। इसी नवरात्र में जगह-जगह गरबों की धूम रहती है।
चैत्र या वासन्ती नवरात्र
चैत्र या वासन्ती नवरात्र का प्रारम्भ चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिप्रदा से होता है। चैत्र में आने वाले नवरात्र में अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा का विशेष प्रावधान माना गया है। वैसे दोनों ही नवरात्र मनाए जाते हैं। फिर भी इस नवरात्र को कुल देवी-देवताओं के पूजन की दृष्टि से विशेष मानते हैं। आज के भागमभाग के युग में अधिकाँश लोग अपने कुल देवी-देवताओं को भूलते जा रहे हैं। कुछ लोग समयाभाव के कारण भी पूजा-पाठ में कम ध्यान दे पाते हैं। जबकि इस ओर ध्यान देकर आने वाली अनजान मुसीबतों से बचा जा सकता है। ये कोई अन्धविश्वास नहीं बल्कि शाश्वत सत्य है।
नियम और मान्यताएँ
नवरात्र में देवी माँ के व्रत रखे जाते हैं। स्थान–स्थान पर देवी माँ की मूर्तियाँ बनाकर उनकी विशेष पूजा की जाती है। घरों में भी अनेक स्थानों पर कलश स्थापना कर दुर्गा सप्तशती पाठ आदि होते हैं। नरीसेमरी में देवी माँ की जोत के लिए श्रृद्धालु आते हैं और पूरे नवरात्र के दिनों में भारी मेला रहता है। शारदीय नवरात्र आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक यह व्रत किए जाते हैं। भगवती के नौ प्रमुख रूप (अवतार) हैं तथा प्रत्येक बार 9-9 दिन ही ये विशिष्ट पूजाएं की जाती हैं। इस काल को नवरात्र कहा जाता है। वर्ष में दो बार भगवती भवानी की विशेष पूजा की जाती है। इनमें एक नवरात्र तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक होते हैं और दूसरे श्राद्धपक्ष के दूसरे दिन आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से आश्विन शुक्ल नवमी तक। आश्विन मास के इन नवरात्रों को 'शारदीय नवरात्र' कहा जाता है क्योंकि इस समय शरद ऋतु होती है। इस व्रत में नौ दिन तक भगवती दुर्गा का पूजन, दुर्गा सप्तशती का पाठ तथा एक समय भोजन का व्रत धारण किया जाता है। प्रतिपदा के दिन प्रात: स्नानादि करके संकल्प करें तथा स्वयं या पण्डित के द्वारा मिट्टी की वेदी बनाकर जौ बोने चाहिए। उसी पर घट स्थापना करें। फिर घट के ऊपर कुलदेवी की प्रतिमा स्थापित कर उसका पूजन करें तथा 'दुर्गा सप्तशती' का पाठ कराएं। पाठ-पूजन के समय अखण्ड दीप जलता रहना चाहिए। वैष्णव लोग राम की मूर्ति स्थापित कर रामायण का पाठ करते हैं। दुर्गा अष्टमी तथा नवमी को भगवती दुर्गा देवी की पूर्ण आहुति दी जाती है। नैवेद्य, चना, हलवा, खीर आदि से भोग लगाकर कन्या तथा छोटे बच्चों को भोजन कराना चाहिए। नवरात्र ही शक्ति पूजा का समय है, इसलिए नवरात्र में इन शक्तियों की पूजा करनी चाहिए।

पुराणों में नवरात्र

मान्यता है कि नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति पाई, इसलिए इस समय आदिशक्ति की आराधना पर विशेष बल दिया गया है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, दुर्गा सप्तशती में स्वयं भगवती ने इस समय शक्ति-पूजा को महापूजा बताया है। कलश स्थापना, देवी दुर्गा की स्तुति, सुमधुर घंटियों की आवाज, धूप-बत्तियों की सुगंध – यह नौ दिनों तक चलने वाले साधना पर्व नवरात्र का चित्रण है। हमारी संस्कृति में नवरात्र पर्व की साधना का विशेष महत्त्व है। नवरात्र में ईश-साधना और अध्यात्म का अद्भुत संगम होता है। आश्विन माह की नवरात्र में रामलीला, रामायण, भागवत पाठ, अखंड कीर्तन जैसे सामूहिक धार्मिक अनुष्ठान होते हैं। यही वजह है कि नवरात्र के दौरान प्रत्येक इंसान एक नए उत्साह और उमंग से भरा दिखाई पड़ता है। वैसे तो ईश्वर का आशीर्वाद हम पर सदा ही बना रहता है, किन्तु कुछ विशेष अवसरों पर उनके प्रेम, कृपा का लाभ हमें अधिक मिलता है। पावन पर्व नवरात्र में देवी दुर्गा की कृपा, सृष्टि की सभी रचनाओं पर समान रूप से बरसती है। इसके परिणामस्वरूप ही मनुष्यों को लोक मंगल के क्रिया-कलापों में आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है।
नवरात्र या नवरात्रि
संस्कृत व्याकरण के अनुसार नवरात्रि कहना त्रुटिपूर्ण हैं। नौ रात्रियों का समाहार, समूह होने के कारण से द्वन्द समास होने के कारण यह शब्द पुलिंग रूप 'नवरात्र' में ही शुद्ध है। पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के काल में एक साल की चार संधियाँ हैं। उनमें मार्च व सितंबर माह में पड़ने वाली गोल संधियों में साल के दो मुख्य नवरात्र पड़ते हैं। इस समय रोगाणु आक्रमण की सर्वाधिक संभावना होती है। ऋतु संधियों में अक्सर शारीरिक बीमारियाँ बढ़ती हैं, अत: उस समय स्वस्थ रहने के लिए, शरीर को शुद्ध रखने के लिए और तनमन को निर्मल और पूर्णत: स्वस्थ रखने के लिए की जाने वाली प्रक्रिया का नाम 'नवरात्र' है।
नौ दिन या रात
अमावस्या की रात से अष्टमी तक या पड़वा से नवमी की दोपहर तक व्रत नियम चलने से नौ रात यानी 'नवरात्र' नाम सार्थक है। यहाँ रात गिनते हैं, इसलिए नवरात्र यानि नौ रातों का समूह कहा जाता है। रूपक के द्वारा हमारे शरीर को नौ मुख्य द्वारों वाला कहा गया है। इसके भीतर निवास करने वाली जीवनी शक्ति का नाम ही दुर्गा देवी है। इन मुख्य इन्द्रियों के अनुशासन, स्वच्छ्ता, तारतम्य स्थापित करने के प्रतीक रूप में, शरीर तंत्र को पूरे साल के लिए सुचारू रूप से क्रियाशील रखने के लिए नौ द्वारों की शुद्धि का पर्व नौ दिन मनाया जाता है। इनको व्यक्तिगत रूप से महत्त्व देने के लिए नौ दिन नौ दुर्गाओं के लिए कहे जाते हैं।
शरीर को सुचारू रखने के लिए विरेचन, सफाई या शुद्धि प्रतिदिन तो हम करते ही हैं किन्तु अंग-प्रत्यंगों की पूरी तरह से भीतरी सफाई करने के लिए हर छ: माह के अंतर से सफाई अभियान चलाया जाता है। सात्विक आहार के व्रत का पालन करने से शरीर की शुद्धि, साफ सुथरे शरीर में शुद्ध बुद्धि, उत्तम विचारों से ही उत्तम कर्म, कर्मों से सच्चरित्रता और क्रमश: मन शुद्ध होता है। स्वच्छ मन मंदिर में ही तो ईश्वर की शक्ति का स्थायी निवास होता है।
नौ दिन यानि हिन्दी माह चैत्र और आश्विन के शुक्ल पक्ष की पड़वा यानि पहली तिथि से नौवी तिथि तक प्रत्येक दिन की एक देवी मतलब नौ द्वार वाले दुर्ग के भीतर रहने वाली जीवनी शक्ति रूपी दुर्गा के नौ रूप हैं-
इनका नौ जड़ी बूटी या ख़ास व्रत की चीज़ों से भी सम्बंध है, जिन्हें नवरात्र के व्रत में प्रयोग किया जाता है-
  1. कुट्टू (शैलान्न)
  2. चौलाई (चंद्रघंटा)
  3. पेठा (कूष्माण्डा)
  4. श्यामक चावल (स्कन्दमाता)
  5. हरी तरकारी (कात्यायनी)
  6. काली मिर्चतुलसी (कालरात्रि)
  7. साबूदाना (महागौरी)
  8. आंवला (सिद्धीदात्री)
क्रमश: ये नौ प्राकृतिक व्रत खाद्य पदार्थ हैं।

नवरात्र कथा

पौराणिक कथानुसार प्राचीन काल में दुर्गम नामक राक्षस ने कठोर तपस्या कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया। उनसे वरदान लेने के बाद उसने चारों वेदपुराणों को कब्जे में लेकर कहीं छिपा दिया। जिस कारण पूरे संसार में वैदिक कर्म बंद हो गया। इस वजह से चारों ओर घोर अकाल पड़ गया। पेड़-पौधे व नदी-नाले सूखने लगे। चारों ओर हाहाकार मच गया। जीव जंतु मरने लगे। सृष्टि का विनाश होने लगा। सृष्टि को बचाने के लिए देवताओं ने व्रत रखकर नौ दिन तक माँ जगदंबा की आराधना की और माता से सृष्टि को बचाने की विनती की। तब माँ भगवती व असुर दुर्गम के बीच घमासान युद्ध हुआ। माँ भगवती ने दुर्गम का वध कर देवताओं को निर्भय कर दिया। तभी से नवदुर्गा तथा नव व्रत का शुभारंभ हुआ।

ध्यान मंत्र

वंदे वांच्छितलाभायाचंद्रार्धकृतशेखराम्
वृषारूढांशूलधरांशैलपुत्रीयशस्विनीम्॥
पूणेंदुनिभांगौरी मूलाधार स्थितांप्रथम दुर्गा त्रिनेत्रा
पट्टांबरपरिधानांरत्नकिरीटांनानालंकारभूषिता॥
प्रफुल्ल वदनांपल्लवाधरांकांतकपोलांतुंग कुचाम्
कमनीयांलावण्यांस्मेरमुखीक्षीणमध्यांनितंबनीम्॥

स्तोत्र मंत्र

प्रथम दुर्गा त्वहिभवसागर तारणीम्
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
त्रिलोकजननींत्वंहिपरमानंद प्रदीयनाम्
सौभाग्यारोग्यदायनीशैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरीत्वंहिमहामोह विनाशिन
भुक्ति, मुक्ति दायनी,शैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरीत्वंहिमहामोह विनाशिन
भुक्ति, मुक्ति दायिनी शैलपुत्रीप्रणमाभ्यहम्॥

कवच मंत्र

ओमकार:में शिर: पातुमूलाधार निवासिनी
हींकार,पातुललाटेबीजरूपामहेश्वरी॥
श्रीकार:पातुवदनेलज्जारूपामहेश्वरी
हूंकार:पातुहृदयेतारिणी शक्ति स्वघृत॥
फट्कार:पातुसर्वागेसर्व सिद्धि फलप्रदा.

अष्टमी या नवमी

यह कुल परम्परा के अनुसार तय किया जाता है। भविष्योत्तर पुराण में और देवी भावगत के अनुसार, बेटों वाले परिवार में या पुत्र की चाहना वाले परिवार वालों को नवमी में व्रत खोलना चाहिए। वैसे अष्टमी, नवमी और दशहरे के चार दिन बाद की चौदस, इन तीनों की महत्ता 'दुर्गासप्तशती' में कही गई है।

कन्या पूजन

अष्टमी और नवमी दोनों ही दिन कन्या पूजन और लोंगड़ा पूजन किया जा सकता है। अतः श्रद्धापूर्वक कन्या पूजन करना चाहिये।
  1. सर्वप्रथम माँ जगदम्बा के सभी नौ स्वरूपों का स्मरण करते हुए घर में प्रवेश करते ही कन्याओं के पाँव धोएं।
  2. इसके बाद उन्हें उचित आसन पर बैठाकर उनके हाथ में मौली बांधे और माथे पर बिंदी लगाएं।
  3. उनकी थाली में हलवा-पूरी और चने परोसे।
  4. अब अपनी पूजा की थाली जिसमें दो पूरी और हलवा-चने रखे हुए हैं, के चारों ओर हलवा और चना भी रखें। बीच में आटे से बने एक दीपक को शुद्ध घी से जलाएं।
  5. कन्या पूजन के बाद सभी कन्याओं को अपनी थाली में से यही प्रसाद खाने को दें।
  6. अब कन्याओं को उचित उपहार तथा कुछ राशि भी भेंट में दें।
  7. जय माता दी कहकर उनके चरण छुएं और उनके प्रस्थान के बाद स्वयं प्रसाद खाने से पहले पूरे घर में खेत्री के पास रखे कुंभ का जल सारे घर में बरसाएँ।

नवरात्रों का महत्त्व

नवरात्रों में लोग अपनी आध्यात्मिक और मानसिक शक्तियों में वृ्द्धि करने के लिये अनेक प्रकार के उपवास, संयम, नियम, भजन, पूजन योग साधना आदि करते हैं। सभी नवरात्रों में माता के सभी 51 पीठों पर भक्त विशेष रुप से माता एक दर्शनों के लिये एकत्रित होते हैं। जिनके लिये वहाँ जाना संभव नहीं होता है, उसे अपने निवास के निकट ही माता के मंदिर में दर्शन कर लेते हैं। नवरात्र शब्द, नव अहोरात्रों का बोध करता है। इस समय शक्ति के नव रूपों की उपासना की जाती है। रात्रि शब्द सिद्धि का प्रतीक है। उपासना और सिद्धियों के लिये दिन से अधिक रात्रियों को महत्त्व दिया जाता है। हिन्दू के अधिकतर पर्व रात्रियों में ही मनाये जाते हैं। रात्रि में मनाये जाने वाले पर्वों में दीपावली, होलिका दहन, दशहरा आदि आते हैं। शिवरात्रि और नवरात्रे भी इनमें से कुछ एक है। रात्रि समय में जिन पर्वों को मनाया जाता है, उन पर्वों में सिद्धि प्राप्ति के कार्य विशेष रुप से किये जाते हैं। नवरात्रों के साथ रात्रि जोड़ने का भी यही अर्थ है, कि माता शक्ति के इन नौ दिनों की रात्रियों को मनन व चिन्तन के लिये प्रयोग करना चाहिए।

धार्मिक महत्त्व

चैत्र और आश्चिन माह के नवरात्रों के अलावा भी वर्ष में दो बार गुप्त नवरात्रे आते हैं। पहला गुप्त नवरात्रा आषाढ शुक्ल पक्ष व दूसरा गुप्त नवरात्रा माघ शुक्ल पक्ष में आता है। आषाढ और माघ मास में आने वाले इन नवरात्रों को गुप्त विधाओं की प्राप्ति के लिये प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त इन्हें साधना सिद्धि के लिये भी प्रयोग किया जा सकता है। तांन्त्रिकों व तंत्र-मंत्र में रुचि रखने वाले व्यक्तियों के लिये यह समय और भी अधिक उपयुक्त रहता है। गृहस्थ व्यक्ति भी इन दिनों में माता की पूजा आराधना कर अपनी आन्तरिक शक्तियों को जाग्रत करते हैं। इन दिनों में साधकों के साधन का फल व्यर्थ नहीं जाता है। मां अपने भक्तों को उनकी साधना के अनुसार फल देती है। इन दिनों में दान पुण्य का भी बहुत महत्त्व कहा गया है।

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

सोमवती अमावस्या: पीपल की परिक्रमा से मिलेगा अक्षय फल

आज (15 अक्तूबर, 2012) सोमवती अमावस्या का त्यौहार है. इस दिन पीपल के पेड़ के नीचे भगवन विष्णु और लक्ष्मी की पूजा करने से अक्षय धन और दांपत्य सुख की प्राप्ति बताई जाती है. सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या कहते हैं। सोमवार चन्द्र को समर्पित दिन है। चन्द्र को अध्यात्म में मन का कारक माना गया है। इस दिन अमावस्या अर्थात बिना चन्द्र की अन्धेरी रात के पड़ने का अर्थ ही है कि मन सम्बन्धी दोषों के समाधान के लिये यह उत्तम दिन है। चूंकि शास्त्रों में चन्द्रमा को ही समस्त दैहिक, दैविक और भौतिक कष्टों का कारक माना गया है, अत: पूरे वर्ष में सामान्यत: एक या दो बार पड़ने वाले इस दिन का बहुत ज्यादा महत्व है। महाभारत में भीष्म पितामह युधिष्ठिर को इस दिन के महत्व के बारे में बताते हुए कहते हैं कि इस दिन जो मनुष्य किसी नदी में स्नान करेगा, उसे समस्त कष्टों से मुक्ति मिलेगी।
 
सोमवती अमावस्या के सम्बन्ध में बहुत से प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। ‘निर्णय सिन्धु’ में इसके महत्व को विस्तार से बताया गया है। ग्रंथों में उल्लेख है कि इस दिन ‘अश्वत्थ’ अर्थात पीपल के वृक्ष की पूजा करने से पति के स्वास्थ्य में सुधार, न्यायिक समस्याओं से मुक्ति, आर्थिक परेशानियों का समाधान और अन्य कई समस्याओं का समाधान होता है। शास्त्रों में वर्णित है कि पीपल के पेड़ का वास्तविक नाम अश्वत्थ है और इसे विष्णु स्वरूप माना जाता है। ‘पिप्पलाद’ ऋ षि ने इस पेड़ के नीचे तपस्या करके शनिदेव को प्रसन्न किया था, अत: इस पेड़ का नाम पीपल पड़ा। चूंकि 23 तारीख को शनि की स्थिति सामान्य से अच्छी है, अत: पीपल के पेड़ की विधिवत पूजा करने से अवश्य लाभ होगा। शास्त्रों में वर्णित है कि इस दिन मौन रह कर अपने इष्ट देव के मंत्रों का जाप करने और नदी या नदियों के संगम पर स्नान करने से पुण्य मिलता है और जीवन में आ रही समस्याओं का समाधान होता है।
 
सभी समस्याओं का होगा समाधान23 जनवरी को पड़ने वाली सोमवती अमवस्या का बहुत महत्व है, क्योंकि इस दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र है और दिन के उत्तरार्ध में मकर राशि में लग्नस्थ होने से यह दिन लगभग सभी कष्टों के समधान का दिन बन रहा है। मकर राशि का स्वामी शनि होता है, जो कि अभी गोचर में उच्च का होकर तुला राशि में दशमस्थ है। इसी दिन दोपहर बाद सर्वार्थ सिद्धि योग भी है। स्पष्ट है कि इस दिन स्वास्थ्य, शिक्षा,कानूनी विवाद,आर्थिक परेशानियों और पति-पत्नी सम्बन्धी विवाद के समाधान हेतु किये गये उपाय अवश्य सफल होंगे। वे जातक जिनकी कुंडली में शनि नीच का होकर मेष राशि में है और जीवन में व्यावसायिक परेशानियों से जूझ रहे हैं, वे आज के दिन पीपल के पेड़ पर तिल के तेल का दीपक जला कर रखें और ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का पेड़ के नीचे ही बैठ कर 108 जाप करें तो लाभ होगा।
 
यदि पति का स्वास्थ्य ठीक नहीं है व घर में मांगलिक कार्य भी नहीं हो रहे हों तो पीपल के पेड़ की 108 परिक्रमा या शारीरिक योग्यता के अनुसार परिक्रमा करते हुए सूत का धागा लपेटें। ‘नारायणाय नम:’ मंत्र का जाप करें। यदि किसी असाध्य बीमारी से ग्रस्त हैं या किसी पारिवारिक विवाद से परेशान हैं तो कोई भी पारिवारिक सदस्य संकल्प लेकर पीपल के पेड़ की 108 प्रदक्षिणा यानी चक्कर लगाये और प्रत्येक प्रदक्षिणा के पश्चात कोई भी एक मिठाई या मेवा रखे। केवल एक सोमवती अमावस्या को ही इस प्रक्रिया को करने से लाभ होता है। इस प्रक्रिया को कम से कम तीन सोमवती अमावस्या तक करने से समस्या से मुक्ति मिलती है। इस प्रक्रिया से पितृ दोष का भी समधान होता है। चूंकि सोमवार,शिव जी को समर्पित दिन है अत: सोमवती अमावस्या को शिवजी का अभिषेक या रुद्राभिषेक करने से पारिवारिक शांति मिलती है।
 
एक विधान यह भी
सोमवती अमावस्या के सम्बन्ध में शास्त्रों में एक कथा भी मिलती है, जिसके अनुसार एक कन्या की कुंडली मे विवाह योग नहीं होता। एक संत उसे धोबी के घर में जाकर सेवा करने से विवाह हो जाने की बात कहते हैं। वह कन्या ऐसा ही करती है और उसका विवाह हो जाता है। इस कथा के कारण ही यहां विधान भी है कि सोमवती अमावस्या के दिन अपने मनोरथों की पूर्ति के लिये लोग धोबी परिवार को भेंट इत्यादि देते हैं।

-डॉ. दत्तात्रेय होस्केरे

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

सर्व पितृ अमावस्या : भूले-बिसरे पितरों का भी श्राद्ध



सामान्यत: जीव के जरिए इस जीवन में पाप और पुण्य दोनों होते हैं। पुण्य का फल है स्वर्ग और पाप का फल है नरक। अपने पुण्य और पाप के आधार पर स्वर्ग और नरक भोगने के पश्चात् जीव पुन: अपने कर्मों के अनुसार चौरासी लाख योनियों में भटकने लगता है। जबकि पुण्यात्मा मनुष्य या देव योनि को प्राप्त करते हैं। अत: भारतीय सनातन संस्कृति के अनुसार पुत्र-पौत्रादि का कर्तव्य होता है कि वे अपने माता-पिता और पूर्वजों के निमित्त कुछ ऐसे शास्त्रोक्त कर्म करें जिससे उन मृत प्राणियों को परलोक में अथवा अन्य योनियों में भी सुख की प्राप्ति हो सके। इसलिए भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म में पितृऋण से मुक्त होने के लिए श्राद्ध करने की अनिवार्यता बताई गई है।
 
वस्तुत: शास्त्रोक्त विधि से किया हुआ श्राद्ध ही सर्वविधि कल्याण प्रदान करता है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को श्रृद्धापूर्वक शास्त्रोक्त विधि से श्राद्ध सम्पन्न करना चाहिए। जो लोग शास्त्रोक्त समस्त श्राद्धों को न कर सकें, उन्हें कम से कम आश्विन मास में पितृगण की मरण तिथि के दिन श्राद्ध करना चाहिए। भाद्र शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा से पितरों का दिन आरम्भ हो जाता है। जो सर्व पितृ विसर्जन अमावस्या तक रहता है। यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की पुण्य तिथि होती है मगर आश्विन मास की अमावस्या पितरों के लिए परम फलदायी मानी गई है। इस अमावस्या को सर्व पितृ विसर्जनी अमावस्या अथवा महालया के नाम से भी जाना जाता है। जो व्यक्ति पितृपक्ष के पन्द्रह दिनों तक श्राद्ध तर्पण आदि नहीं कर पाते अथवा जिन पितरों की मृत्यु तिथि याद न हो, उन सबके निमित्त श्राद्ध, तर्पण, दान आदि इसी अमावस्या को किया जाता है। शास्त्रीय मान्यता है कि अमावस्या के दिन पितर अपने पुत्रादि के द्वार पर पिण्डदान एवं श्राद्ध आदि की आशा से आते हैं। यदि उन्हें वहाँ पिण्डदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलती, तो वे अप्रसन्न होकर चले जाते हैं। जिससे जीवन में पितृदोष के कारण अनेक कठिनाइयों और विघ्न बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
 
सनातन धर्म में पितृपक्ष का विशेष महत्व है। यूं तो पूरे आश्विन कृष्ण पक्ष में हर दिन पितरों का निमित पिंडदान करना चाहिए, लेकिन 15 अक्टूबर को पितृपक्ष के दौरान सोमवार को बने सोमवती अमावस्या योग में सर्वपितृ श्राद्ध करना अतिशुभ है। ऐसी मान्यता है की सोमवती अमावस्या के दिन ज्ञात और अज्ञात तिथियों में मृत हुई आत्माओं का श्राद्ध करना शुभ होता है। शास्त्रों में भी इस बात का उल्लेख हैं कि अकाल मृत्यु वालों की अमावस्या के दिन गति करवाने से उस आत्मा को मुक्ति मिलती है, इसलिए श्राद्ध की अमावस्या को पितरों की तिथि के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन गच्छ छाया में तर्पण करने का विशेष मुहूर्त है। इसमें पिंडदान के साथ साथ योग्य ब्राह्मण को यथाशक्ति भोजन, फल, वस्त्र व इच्छानुसार दान जरूर देना चाहिए। सर्वपितृ अमावस्या के शुभ दिन स्नान दान का भी विशेष महत्व है। इस दिन हरिद्वार, पिहोवा व गया जैसे धार्मिक् तीर्थ स्थलों में पितरों का निमित पिंडदान करने के लिए प्रदेश के अलावा देश के अन्य राज्यों से भी हजारों की संख्या में लोग पहुंचते हैं।

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

नव संवत्सर : सृष्टि की रचना का दिवस

आज विक्रम संवत 2069 के पहले दिन से हिन्दू नव-वर्ष का आरंभ हो रहा है. हिंदू नव वर्ष या भारतीय नव वर्ष का प्रारंभ चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है। इसे हिंदू नव संवत्सर या नव संवत या विक्रम संवत कहते हैं। शक्ति की देवी माँ दुर्गा की आराधना का 'नवरात्र' भी आज से ही प्रारम्भ होता है. ऐसी मान्यता है कि जगत की सृष्टि की घड़ी (समय) यही है। इस दिन भगवान ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना हुई तथा युगों में प्रथम सत्ययुग का प्रारंभ हुआ। ‘चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे अहनि। शुक्ल पक्षे समग्रेतु तदा सूर्योदये सति।।‘ अर्थात ब्रह्मा पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना चैत्र मास के प्रथम दिन, प्रथम सूर्योदय होने पर की। इस तथ्य की पुष्टि सुप्रसिद्ध भास्कराचार्य रचित ग्रंथ ‘सिद्धांत शिरोमणि‘ से भी होती है, जिसके श्लोक में उल्लेख है कि लंका नगर में सूर्योदय के क्षण के साथ ही, चैत्र मास, शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस से मास, वर्ष तथा युग आरंभ हुए। अतः नव वर्ष का प्रारंभ इसी दिन से होता है, और इस समय से ही नए विक्रम संवत्सर का भी आरंभ होता है, जब सूर्य भूमध्य रेखा को पार कर उत्तरायण होते हैं। इस समय से ऋतु परिवर्तन होनी शुरू हो जाती है। वातावरण समशीतोष्ण होने लगता है। ठंडक के कारण जो जड़-चेतन सभी सुप्तावस्था में पड़े होते हैं, वे सब जाग उठते हैं, गतिमान हो जाते हैं। पत्तियों, पुष्पों को नई ऊर्जा मिलती है। समस्त पेड़-पौधे, पल्लव रंग-विरंगे फूलों के साथ खिल उठते हैं। ऋतुओं के एक पूरे चक्र को संवत्सर कहते हैं। इस वर्ष नया विक्रम संवत 2069, मार्च 23, 2012 को प्रारंभ हो रहा है।


संवत्सर, सृष्टि के प्रारंभ होने के दिवस के अतिरिक्त, अन्य पावन तिथियों, गौरवपूर्ण राष्ट्रीय, सांस्कृतिक घटनाओं के साथ भी जुड़ा है। रामचन्द्र का राज्यारोहण, धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म, आर्य समाज की स्थापना तथा चैत्र नवरात्र का प्रारंभ आदि जयंतियां इस दिन से संलग्न हैं। इसी दिन से मां दुर्गा की उपासना, आराधना, पूजा भी प्रारंभ होती है। यह वह दिन है, जब भगवान राम ने रावण को संहार कर, जन-जन की दैहिक-दैविक-भौतिक, सभी प्रकार के तापों से मुक्त कर, आदर्श रामराज्य की स्थापना की। सम्राट विक्रमादित्य ने अपने अभूतपूर्व पराक्रम द्वारा शकों को पराजित कर, उन्हें भगाया, और इस दिन उनका गौरवशाली राज्याभिषेक किया गया।

विक्रम संवत की शुरुआत उज्जैन के प्रतापी राजा विक्रमादित्य ने की थी. उनकी न्यायप्रियता के किस्से भारतीय परिवेश का हिस्सा बन चुके हैं। विक्रमादित्य का राज्य उत्तर में तक्षशिला जिसे वर्तमान में पेशावर (पाकिस्तान) के नामसे जाना जाता हैं, से लेकर नर्मदा नदी के तट तक था। विक्रम संवत को सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने की खुशी में 57 ईसा पूर्व शुरू किया था।राजा विक्रमादित्य ने यह सफलता मालवा के निवासियों के साथ मिलकर गठित जनसमूह और सेना के बल पर हासिल की थी। विक्रमादित्य की इस विजय के बाद जब राज्यारोहण हुआ तब उन्होंने प्रजा के तमाम ऋणों को माफ करने का ऐलान किया तथा नए भारतीय कैलेंडर को जारी किया, जिसे विक्रम संवत नाम दिया गया।इतिहास के मुताबिक, अवन्ती (वर्तमान उज्जैन) के राजा विक्रमादित्य ने इसी तिथि से कालगणना के लिए ‘विक्रम संवत्’ का प्रारंभ किया था, जो आज भी हिंदू कालगणना के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। कहा जाता है कि विक्रमसंवत्, विक्रमादित्य प्रथम के नाम पर प्रारंभ होता है जिसके राज्य में न तो कोई चोर था और न ही कोई अपराधी या भिखारी था। ज्योतिष की मानें तो प्रत्येक संवत् का एक विशेष नाम होता है। विभिन्न ग्रह इस संवत् के राजा, मंत्री और स्वामी होते हैं। इन ग्रहों का असर वर्ष भर दिखाई देता है। सिर्फ यही नहीं समाज को श्रेष्ठ (आर्य) मार्ग पर ले जाने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी इसी दिन को ‘आर्य समाज’ स्थापना दिवस के रूप में चुना था।

मानव इतिहास की सबसे पुरानी पर्व परम्पराओं में से एक नववर्ष है। नववर्ष के आरम्भ का स्वागत करने की मानव प्रवृत्ति उस आनन्द की अनुभूति से जुड़ी हुई है जो बारिश की पहली फुहार के स्पर्श पर, प्रथम पल्लव के जन्म पर, नव प्रभात के स्वागतार्थ पक्षी के प्रथम गान पर या फिर हिम शैल से जन्मी नन्हीं जलधारा की संगीत तरंगों से प्रस्फुटित होती है। विभिन्न विश्व संस्कृतियाँ इसे अपनी-अपनी कैलेण्डर प्रणाली के अनुसार मनाती हैं। वस्तुतः मानवीय सभ्यता के आरम्भ से ही मनुष्य ऐसे क्षणों की खोज करता रहा है, जहाँ वह सभी दुख, कष्ट व जीवन के तनाव को भूल सके। इसी के तद्नुरुप क्षितिज पर उत्सवों और त्यौहारों की बहुरंगी झांकियाँ चलती रहती हैं।

इतिहास के गर्त में झांकें तो प्राचीन बेबिलोनियन लोग अनुमानतः 4000 वर्ष पूर्व से ही नववर्ष मनाते रहे हैं, उस समय नव वर्ष का ये त्यौहार 21 मार्च को मनाया जाता था जो कि वसंत के आगमन की तिथि भी मानी जाती थी। प्राचीन रोमन कैलेण्डर में मात्र 10 माह होते थे और वर्ष का शुभारम्भ 1 मार्च से होता था। बहुत समय बाद 713 ई0पू0 के करीब इसमें जनवरी तथा फरवरी माह जोड़े गये। सर्वप्रथम 153 ई0पू0 में 1 जनवरी को वर्ष का शुभारम्भ माना गया एवं 45 ई0पू0 में जब रोम के तानाशाह जूलियस सीजर द्वारा जूलियन कैलेण्डर का शुभारम्भ हुआ, तो यह सिलसिला बरकरार रहा। ऐसा करने के लिए जूलियस सीजर को पिछला साल, यानि, ईसा पूर्व 46 ई0 को 445 दिनों का करना पड़ा था। 1 जनवरी को नववर्ष मनाने का चलन 1582 ई0 के ग्रेगेरियन कैलेण्डर के आरम्भ के बाद ही बहुतायत में हुआ। दुनिया भर में प्रचलित ग्रेगेरियन कैलेंडर को पोप ग्रेगरी अष्टम ने 1582 में तैयार किया था। ग्रेगरी ने इसमें लीप ईयर का प्रावधान भी किया था। ईसाईयों का एक अन्य पंथ ईस्टर्न आर्थोडाॅक्स चर्च रोमन कैलेंडर को मानता है। इस कैलेंडर के अनुसार नया साल 14 जनवरी को मनाया जाता है। यही वजह है कि आर्थोडाॅक्स चर्च को मानने वाले देशों रुस, जार्जिया, येरुशलम और सर्बिया में नया साल 14 जनवरी को मनाया जाता है।

आज विभिन्न विश्व संस्कृतियाँ नव वर्ष अपनी-अपनी कैलेण्डर प्रणाली के अनुसार मनाती हैं। हिब्रू मान्यताओं के अनुसार भगवान द्वारा विश्व को बनाने में सात दिन लगे थे। इस सात दिन के संधान के बाद नया वर्ष मनाया जाता है। यह दिन ग्रेगेरियन कैलेण्डर के मुताबिक 5 सितम्बर से 5 अक्टूबर के बीच आता है। इसी तरह इस्लाम के कैलेंडर को हिजरी साल कहते हैं। इसका नव वर्ष मोहर्रम माह के पहले दिन होता है। इस्लामी कैलेण्डर एक पूर्णतया चन्द्र आधारित कैलेंडर है, जिसके कारण इसके बारह मासों का चक्र 33 वर्षों में सौर कैलेण्डर को एक बार घूम लेता है। इसके कारण नर्व वर्ष प्रचलित ग्रेगेरियन कैलेण्डर में अलग-अलग महीनों में पड़़ता है। चीन का भी कैलेण्डर चन्द्र गणना पर आधारित है। चीनी कैलेण्डर के अनुसार प्रथम मास का प्रथम चन्द्र दिवस नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है। यह प्रायः 21 जनवरी से 21 फरवरी के बीच पड़ता है।

भारत के भी विभिन्न हिस्सों में नव वर्ष अलग-अलग तिथियों को मनाया जाता है। भारत में नव वर्ष का शुभारम्भ वर्षा का संदेशा देते मेघ, सूर्य और चंद्र की चाल, पौराणिक गाथाओं और इन सबसे ऊपर खेतों में लहलहाती फसलों के पकने के आधार पर किया जाता है। इसे बदलते मौसमों का रंगमंच कहें या परम्पराओं का इन्द्रधनुष या फिर भाषाओं और परिधानों की रंग-बिरंगी माला, भारतीय संस्कृति ने दुनिया भर की विविधताओं को संजो रखा है। असम में नववर्ष बीहू के रुप में मनाया जाता है, केरल में पूरम विशु के रुप में, तमिलनाडु में पुत्थंाडु के रुप में, आन्ध्र प्रदेश में उगादी के रुप में, महाराष्ट्र में गुड़ीपड़वा के रुप में तो बांग्ला नववर्ष का शुभारंभ वैशाख की प्रथम तिथि से होता है।

भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ लगभग सभी जगह नववर्ष मार्च या अप्रैल माह अर्थात चैत्र या बैसाख के महीनों में मनाये जाते हैं। पंजाब में नव वर्ष बैशाखी नाम से 13 अप्रैल को मनाई जाती है। सिख नानकशाही कैलेण्डर के अनुसार 14 मार्च होला मोहल्ला नया साल होता है। इसी तिथि के आसपास बंगाली तथा तमिल नव वर्ष भी आता है। तेलगू नव वर्ष मार्च-अप्रैल के बीच आता है। आंध्र प्रदेश में इसे उगादी (युगादि=युग$आदि का अपभ्रंश) के रूप में मनाते हैं। यह चैत्र महीने का पहला दिन होता है। तमिल नव वर्ष विशु 13 या 14 अप्रैल को तमिलनाडु और केरल में मनाया जाता है। तमिलनाडु में पोंगल 15 जनवरी को नव वर्ष के रुप में आधिकारिक तौर पर भी मनाया जाता है। कश्मीरी कैलेण्डर नवरेह 19 मार्च को आरम्भ होता है। महाराष्ट्र में गुडी पड़वा के रुप में मार्च-अप्रैल के महीने में मनाया जाता है, कन्नड़ नव वर्ष उगाडी कर्नाटक के लोग चैत्र माह के पहले दिन को मनाते हैं, सिंधी उत्सव चेटी चंड, उगाड़ी और गुडी पड़वा एक ही दिन मनाया जाता है। मदुरै में चित्रैय महीने में चित्रैय तिरुविजा नव वर्ष के रुप में मनाया जाता है। मारवाड़ी और गुजराती नव वर्ष दीपावली के दिन होता है, जो अक्टूबर या नवंबर में आती है। बंगाली नव वर्ष पोहेला बैसाखी 14 या 15 अप्रैल को आता है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में इसी दिन नव वर्ष होता है। वस्तुतः भारत वर्ष में वर्षा ऋतु की समाप्ति पर जब मेघमालाओं की विदाई होती है और तालाब व नदियाँ जल से लबालब भर उठते हैं तब ग्रामीणों और किसानों में उम्मीद और उल्लास तरंगित हो उठता है। फिर सारा देश उत्सवों की फुलवारी पर नववर्ष की बाट देखता है। इसके अलावा भारत में विक्रम संवत, शक संवत, बौद्ध और जैन संवत, तेलगु संवत भी प्रचलित हैं, इनमें हर एक का अपना नया साल होता है। देश में सर्वाधिक प्रचलित विक्रम और शक संवत हैं।

आप सभी को भारतीय नववर्ष विक्रमी सम्वत 2069 और चैत्री नवरात्रारंभ पर हार्दिक शुभकामनायें. आप सभी के लिए यह नववर्ष अत्यन्त सुखद हो, शुभ हो, मंगलकारी व कल्याणकारी हो, नित नूतन उँचाइयों की ओर ले जाने वाला हो !!

-आकांक्षा यादव

गुरुवार, 8 मार्च 2012

फागुनी फिजाओं में रामलीला का उत्सव


भारत में त्यौहारों का संबंध विभिन्न प्रसंगों से जोड़ा जाता है। हर त्यौहार के पीछे मिथक व मान्यताएं होती हैं, पर कई बार ये त्यौहार आपस में इतने जुड़ जाते हैं कि वे उत्सवी परंपरा के ही अभिन्न अंग लगने लगते हैं। मसलन, फागुन में जब रंगों की फुहारें भगवान श्री कृष्ण के बरसाने के होली उत्सव की याद दिलाती हैं तो रामलीला का आयोजन कुछ अजीब लगता है, लेकिन बरेली शहर में होली के रंगो में भगवान राम के आदर्श भी गूंजते हैं। 150 से भी अधिक साल से यहाँ फागुन में वमनपुरी की रामलीला होती आ रही है। संभवतः देश में यह अकेला ऐसी रामलीला है जो होली के उपलक्ष्य में होती है।

इस रामलीला की अपनी दीर्घ ऐतिहासिक परंपरा है। वमनपुरी की यह रामलीला 1861 में शुरु हुई थी। तब इस क्षेत्र के उत्साही बच्चे टीन-गत्ते आदि के मुकुट और बालों की दाढ़ी-मूँछ लगाकर रामलीला का मंचन करते थे। पात्रों का श्रृंगार राजसी शैली में प्राकृतिक रंगो और सितारों से होता था। ये रामलीलाएं वमनपुरी और उसके आसपास के मोहल्लों की गलियों-चैराहों पर होती थीं। उन्हीं परंपराओं के तहत आज भी रामलीला के कई प्रसंगों का मंचन वमनपुरी व आसपास के मोहल्लों की गलियों में होता है। ‘शबरी लीला’ चटोरी गली में होती है। वमनपुरी में रामलीला का मुख्य मंचन श्री नृसिंह मंदिर में होता है। इस रामलीला को नया स्वरूप मिला 1888-89 में, जब उस समय के प्रतिष्ठित एवं गणमान्य हकीम कन्हैया लाल, गोपेश्वर बाबू, जगन रस्तोगी, पंडित जंगबहादुर, बेनी माधव, लाला बिहारी लाल, पंडित राधेश्याम कथावाचक एवं मिर्जा जी रामलीला का मंचन कराने लगे। पंडित रघुवर दयाल और पंडित रज्जन गुरु भी चैपाइयों का वाचन करते थे। सन् 1935-38 के बीच शहरवासियों ने रामलीला के लिए खुले हाथ से सहयोग देना प्रारंभ कर दिया। 1949 में साहूकारा के शिवचरन लाल ने राम एवं केवट संवाद को सजीव बनाने के लिए लकड़ी की नाव बनवाकर रामलीला सभा को भेंट की थी। तब से ही भगवान राम- केवट संवाद का मंचन इसी नाव के जरिए साहूकारा स्थित भैरो मंदिर में होता है।

यहांँ चैत्र कृष्ण एकादशी पर रामलीला का मंचन शुरु हो जाता है और धुलंडी के दिन तक रोज विभिन्न प्रसंगों का मंचन होता है। रामलीला का समापन नृसिंह भगवान की शोभा यात्रा के साथ होता है। होली के दिन रामलीला से निकलने वाली राम बारात शहर में अनूठे रंग बिखेरती है। इसमें सौहार्द के फूल बरसते हैं। हिन्दू हो या मुस्लिम सभी पुष्पवर्षा कर राम बारात का स्वागत करते हैं। फागुनी फिजाओं में रामलीला का यह उत्सव वाकई अद्भुत है।

रविवार, 25 दिसंबर 2011

प्‍यार व भाईचारे का संदेश देता क्रिसमस पर्व

क्रिसमस शब्‍द का जन्‍म क्राईस्‍टेस माइसे अथवा ‘क्राइस्‍टस् मास’ शब्‍द से हुआ है। ऐसा अनुमान है कि पहला क्रिसमस रोम में 336 ई. में मनाया गया था। यह प्रभु के पुत्र जीसस क्राइस्‍ट के जन्‍म दिन को याद करने के लिए पूरे विश्‍व में 25 दिसम्‍बर को मनाया जाता है यह ईसाइयों के सबसे महत्‍वपूर्ण त्‍यौहारों में से एक है। इस दिन भारत व अधिकांश अन्‍य देशों में सार्वजनिक अवकाश रहता है।

क्राइस्‍ट के जन्‍म के संबंध में नए टेस्‍टामेंट के अनुसार व्‍यापक रूप से स्‍वीकार्य ईसाई पौराणिक कथा है। इस कथा के अनुसार प्रभु ने मैरी नामक एक कुंवारी लड़की के पास गैब्रियल नामक देवदूत भेजा। गैब्रियल ने मैरी को बताया कि वह प्रभु के पुत्र को जन्‍म देगी तथा बच्‍चे का नाम जीसस रखा जाएगा। व‍ह बड़ा होकर राजा बनेगा, तथा उसके राज्‍य की कोई सीमाएं नहीं होंगी।

देवदूत गैब्रियल, जोसफ के पास भी गया और उसे बताया कि मैरी एक बच्‍चे को जन्‍म देगी, और उसे सलाह दी कि वह मैरी की देखभाल करे व उसका परित्‍याग न करे। जिस रात को जीसस का जन्‍म हुआ, उस समय लागू नियमों के अनुसार अपने नाम पंजीकृत कराने के लिए मैरी और जोसफ बेथलेहेम जाने के लिए रास्‍ते में थे। उन्‍होंने एक अस्‍तबल में शरण ली, जहां मैरी ने आधी रात को जीसस को जन्‍म दिया तथा उसे एक नांद में लिटा दिया। इस प्रकार प्रभु के पुत्र जीसस का जन्‍म हुआ।

क्रिसमस समारोह अर्धरात्रि के समय के बाद, जिसे समारोह का एक अनिवार्य भाग माना जाता है, शुरू होते हैं। इसके बाद मनोरंजन किया जाता है। सुंदर रंगीन वस्‍त्र पहने बच्‍चे ड्रम्‍स, झांझ-मंजीरों के आर्केस्‍ट्रा के साथ चमकीली छडियां लिए हुए सामूहिक नृत्‍य करते हैं।

सेंट बेनेडिक्‍ट उर्फ सान्‍ता क्‍लाज़, लाल व सफेद ड्रेस पहने हुए, एक वृद्ध मोटा पौराणिक चरित्र है, जो रेन्डियर पर सवार होता है, तथा समारोहों में, विशेष कर बच्‍चों के लिए एक महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह बच्‍चों को प्‍यार करता है तथा उनके लिए चाकलेट, उपहार व अन्‍य वांछित वस्‍तुएं लाता है, जिन्‍हें वह संभवत: रात के समय उनके जुराबों में रख देता है।

क्रिसमस के दौरान प्रभु की प्रशंसा में लोग कैरोल गाते हैं। वे प्‍यार व भाई चारे का संदेश देते हुए घर-घर जाते हैं।

क्रिसमस ट्री अपने वैभव के लिए पूरे विश्‍व में लोकप्रिय है। लोग अपने घरों को पेड़ों से सजाते हैं तथा हर कोने में मिसलटों को टांगते हैं। चर्च मास के बाद, लोग मित्रवत् रूप से एक दूसरे के घर जाते हैं तथा दावत करते हैं और एक दूसरे को शुभकामनाएं व उपहार देते हैं। वे शांति व भाईचारे का संदेश फैलाते हैं।

भारत में विशेषकर गोवा में कुछ लोकप्रिय चर्च हैं, जहां क्रिसमस बहुत जोश व उत्‍साह के साथ मनाया जाता है। इनमें से अधिकांश चर्च भारत में ब्रि‍टिश व पुर्तगाली शासन के दौरान स्‍‍थापित किए गए थे।

भारत के कुछ बड़े चर्चों मे सेंट जोसफ कैथेड्रिल, और आंध्र प्रदेश का मेढक चर्च, सेंट कै‍थेड्रल, चर्च आफ सेंट फ्रांसिस आफ आसीसि और गोवा का बैसिलिका व बोर्न जीसस, सेंट जांस चर्च इन विल्‍डरनेस और हिमाचल में क्राइस्‍ट चर्च, सांता क्‍लाज बैसिलिका चर्च, और केरल का सेंट फ्रासिस चर्च, होली क्राइस्‍ट चर्च तथा माउन्‍ट मेरी चर्च महाराष्‍ट्र में, तमिलनाडु में क्राइस्‍ट द किंग चर्च व वेलान्‍कन्‍नी चर्च, और आल सेंट्स चर्च व कानपुर मेमोरियल चर्च उत्‍तर प्रदेश में शामिल हैं।

क्रिसमस पर्व पर आप सभी को बधाई और शुभकामनाएं !!

साभार :bharat.gov.in

बुधवार, 31 अगस्त 2011

मुहब्बत व प्यार एवं कौमी मकजहती और खुशी का इजहार है ईद

यूं तो रमजान का पूरा महीना रहमत, मगफिरत और नर्क से छुटकारे का है, लेकिन जो लोग शराबी हैं, माता-पिता का कहना नहीं मानते हैं, आपस में लड़ते हैं और दिल में कीना रखते हैं, उनकी इस महीने में भी मगफिरत व बख्शिस नहीं होती है। हर्ष के मैदान में रोजेदारों को पुकार कर कहा जाता है कि उठो और जन्नत के आठ दरवाजों में से एक खास दरवाजे [रैय्यान] से जन्नत में दाखिल हो जाओ। यह वह दरवाजा है जिसमें मगफिरत व बख्शिस नहीं दिए जाने वाले प्रवेश नहीं कर सकते हैं।

रमजान वो महीना है जिसमें इंसानों की सारी मनुष्यता के लिए हिदायत बनाकर रौशनी हासिल करने के लिए कुरान नाजील फरमाया गया है। कुरान वो किताब है जिसके द्वारा इंसान सच और झूठ में, न्याय और अन्याय में, हक व बातिल में, कुर्फ में इमान में, इंसानियत और शैतानियत में फर्क करना सीखते हैं। रमजान के अंदर अल्लाह की तरफ से तमाम मुसलमानों के ऊपर रोजा फर्ज किया गया है। कुराण कहता है-ऐ इमान वालों, तुम पर जिस तरह रोजा फर्ज किया गया है ठीक उसी तरह उन्मतों पर भी रोजा फरमाया गया है ताकि तुम परहेजगार बन सको। रमजान का सबसे अहम अमल रोजा है। सूर्योदय के पूर्व से सूर्यास्त होने तक अपने बनाने वाले अल्लाह की एक इच्छा के अनुसार जायज खाने-पीने से और दिल की ख्वाइश से बच-बचाकर इंसान यह अभ्यास करता है कि वे पूरी जिंदगी में अपने अल्लाह के कहने के मुताबिक ही चले।

रमजान में रोजे के साथ-साथ रात में मुसलमान रोजाना तराबीह की बीस रकत नमाज में पूरा कुरान सुनते हैं। ये दुनिया भर की हर मज्जिद में अमल सुन्नत जानकर अदा की जाती है। इसकी फजीलत हदीस में आई है कि जो ईमान व ऐहतसाब के साथ ये नमाज तरबीह की अदा करेगा उसके पिछले तमाम गुनाहों को माफ कर दिया जाता है।

आमतौर पर आम मुसलमान ईद की पूर्व रात को चांद की रात के नाम से जानते हैं लेकिन कुरान में इस रात की बड़ी अहमियत होती है। हदीस के अनुसार इसका अर्थ है कि फरिश्ते आसमान पर इस रात को बातें करते हैं कि लैलतुल जाइजा [इनाम की रात] यानी पूरे रमजान जो अल्लाह के बंदों ने दिनों में रोजा रखकर और रातों में तराबीह पढ़कर अपने अल्लाह का हुकूम पूरा किया है, आज की रात उन्हें इनाम और बदले में अल्लाहताला उनकी बख्शिस व मगफिरत फरमाता है।

ईद अरबी शब्द है जिसका अर्थ है कि बार-बार लौटकर आने वाली खुशी। ईद में दो रकत नमाज वाजिब शुक्राने के तौर पर तमाम मुसलमान अदा करते हैं। वैसे मुसलमान से अल्लाहताला खुश हो जाते हैं और रमजान के दौरान अच्छी तरह नमाज अदा करने वाले रोजदार को अल्लाहताला से रजा व खुशी हासिल हो जाती है। इसी शुक्राने में ईद की नमाज अदा की जाती है। ईद वाले दिन सदक-ए-फितर हर साहिबे हैसियत मुसलमानों पर वाजिब है। अपने तमाम घर वालों की तरफ से पौने दो किलो गेहूं या उसकी कीमत के बराबर रकम गरीब, मिस्कीन, नादार में तकसीत कर दें ताकि हर मुसलमान खुशी और मुसर्रत के साथ ईद की खुशियों में अपना हिस्सा भी हासिल कर सकें। ईद के दिन आसमान में फरिश्ते आपस में बातें करते है कि अल्लाह ताला ने सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की उम्मत के साथ क्या मामला किया? उन्हें जबाव मिलता है, मेहनत करने वाले को उनकी पूरी-पूरी मजदूरी दे दी जाती है जो अल्लाह की रजा व खुशनुदी की शक्ल में उस दिन लोगों को अता की जाती है।

पूरे महीने के रोजे के बाद अल्लाह का शुक्र अदा करने और अपनी अदा अजरत अल्लाहताला से लेने के लिए ईद की नमाज अदा की जाती है क्योंकि अल्लाह ईद के दिन सारे रोजदारों की मगफिरत फरमाकर निजात का परवाना अताए फरमाता है। ईद की नमाज हमारे रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की सुन्नत है और हमसब पर वाजिब है। इस दिन एक दूसरे से मुहब्बत व प्यार एवं कौमी मकजहती और खुशी का इजहार किया जाता है।

[प्रस्तुति-ब्रजेश नंदन माधुर्य]

सोमवार, 22 अगस्त 2011

श्री कृष्ण जन्माष्टमी की बधाइयाँ

श्री कृष्णजन्माष्टमी भगवान श्री कृष्ण का जनमोत्स्व है। योगेश्वर कृष्ण के भगवद गीता के उपदेश अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं। जन्माष्टमी भारत में हीं नहीं बल्कि विदेशों में बसे भारतीय भी इसे पूरी आस्था व उल्लास से मनाते हैं। श्रीकृष्ण ने अपना अवतार भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में लिया। चूंकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अत: इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इसीलिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर मथुरा नगरी भक्ति के रंगों से सराबोर हो उठती है।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पावन मौके पर भगवान कान्हा की मोहक छवि देखने के लिए दूर दूर से श्रद्धालु आज के दिन मथुरापहुंचते हैं। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव पर मथुरा कृष्णमय हो जाता है। मंदिरों को खास तौर पर सजाया जाता है। ज्न्माष्टमी में स्त्री-पुरुष बारह बजे तक व्रत रखते हैं। इस दिन मंदिरों में झांकियां सजाई जाती है और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है। और रासलीला का आयोजन होता है।

श्रीकृष्णजन्माष्टमीका व्रत सनातन-धर्मावलंबियों के लिए अनिवार्य माना गया है। इस दिन उपवास रखें तथा अन्न का सेवन न करें। समाज के सभी वर्ग भगवान श्रीकृष्ण के प्रादुर्भाव-महोत्सव को अपनी साम‌र्थ्य के अनुसार उत्साहपूर्वक मनाएं। गौतमीतंत्रमें यह निर्देश है-

उपवास: प्रकर्तव्योन भोक्तव्यंकदाचन।
कृष्णजन्मदिनेयस्तुभुड्क्तेसतुनराधम:।
निवसेन्नरकेघोरेयावदाभूतसम्प्लवम्॥

अमीर-गरीब सभी लोग यथाशक्ति-यथासंभव उपचारों से योगेश्वर कृष्ण का जन्मोत्सव मनाएं। जब तक उत्सव सम्पन्न न हो जाए तब तक भोजन कदापि न करें। जो वैष्णव कृष्णाष्टमी के दिन भोजन करता है, वह निश्चय ही नराधम है। उसे प्रलय होने तक घोर नरक में रहना पडता है।

धार्मिक गृहस्थोंके घर के पूजागृह तथा मंदिरों में श्रीकृष्ण-लीला की झांकियां सजाई जाती हैं। भगवान के श्रीविग्रहका शृंगार करके उसे झूला झुलाया जाता है। श्रद्धालु स्त्री-पुरुष मध्यरात्रि तक पूर्ण उपवास रखते हैं। अर्धरात्रिके समय शंख तथा घंटों के निनाद से श्रीकृष्ण-जन्मोत्सव मनाया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति अथवा शालिग्राम का दूध, दही, शहद, यमुनाजल आदि से अभिषेक होता है। तदोपरांत श्रीविग्रहका षोडशोपचार विधि से पूजन किया जाता है। कुछ लोग रात के बारह बजे गर्भ से जन्म लेने के प्रतीक स्वरूप खीरा चीर कर बालगोपाल की आविर्भाव-लीला करते हैं।

धर्मग्रंथों में जन्माष्टमी की रात्रि में जागरण का विधान भी बताया गया है। कृष्णाष्टमी की रात में भगवान के नाम का संकीर्तन या उनके मंत्र

ॐनमोभगवतेवासुदेवायका जाप अथवा श्रीकृष्णावतारकी कथा का श्रवण करें। श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए रात भर जगने से उनका सामीप्य तथा अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। जन्मोत्सव के पश्चात घी की बत्ती, कपूर आदि से आरती करें तथा भगवान को भोग में निवेदित खाद्य पदार्थो को प्रसाद के रूप में वितरित करके अंत में स्वयं भी उसको ग्रहण करें।

आज जन्माष्टमी का व्रत करने वाले वैष्णव प्रात:काल नित्यकर्मो से निवृत्त हो जाने के बाद इस प्रकार संकल्प करें-

ॐविष्णुíवष्णुíवष्णु:अद्य शर्वरीनामसंवत्सरेसूर्येदक्षिणायनेवर्षतरैभाद्रपदमासेकृष्णपक्षेश्रीकृष्णजन्माष्टम्यांतिथौभौमवासरेअमुकनामाहं(अमुक की जगह अपना नाम बोलें) मम चतुर्वर्गसिद्धिद्वारा श्रीकृष्णदेवप्रीतयेजन्माष्टमीव्रताङ्गत्वेनश्रीकृष्णदेवस्ययथामिलितोपचारै:पूजनंकरिष्ये।

वैसे तो जन्माष्टमी के व्रत में पूरे दिन उपवास रखने का नियम है, परंतु इसमें असमर्थ फलाहार कर सकते हैं।

भविष्यपुराणके जन्माष्टमीव्रत-माहात्म्यमें यह कहा गया है कि जिस राष्ट्र या प्रदेश में यह व्रतोत्सवकिया जाता है, वहां पर प्राकृतिक प्रकोप या महामारी का ताण्डव नहीं होता। मेघ पर्याप्त वर्षा करते हैं तथा फसल खूब होती है। जनता सुख-समृद्धि प्राप्त करती है। इस व्रतराजके अनुष्ठान से सभी को परम श्रेय की प्राप्ति होती है। व्रतकत्र्ताभगवत्कृपाका भागी बनकर इस लोक में सब सुख भोगता है और अन्त में वैकुंठ जाता है। कृष्णाष्टमी का व्रत करने वाले के सब क्लेश दूर हो जाते हैं। दुख-दरिद्रता से उद्धार होता है। गृहस्थोंको पूर्वोक्त द्वादशाक्षरमंत्र से दूसरे दिन प्रात:हवन करके व्रत का पारण करना चाहिए। जिन परिवारों में कलह-क्लेश के कारण अशांति का वातावरण हो, वहां घर के लोग जन्माष्टमी का व्रत करने के साथ इस मंत्र का अधिकाधिक जप करें-

कृष्णायवासुदेवायहरयेपरमात्मने।
प्रणतक्लेशनाशायगोविन्दायनमोनम:॥

उपर्युक्त मंत्र का नित्य जाप करते हुए सच्चिदानंदघनश्रीकृष्ण की आराधना करें। इससे परिवार में खुशियां वापस लौट आएंगी। घर में विवाद और विघटन दूर होगा।

श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्तिहटती है। जन्माष्टमी का व्रत व्रतराज है। इसके सविधि पालन से आज आप अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाली महान पुण्यराशिप्राप्त कर लेंगे।

व्रजमण्डलमें श्रीकृष्णाष्टमीके दूसरे दिन भाद्रपद-कृष्ण-नवमी में नंद-महोत्सव अर्थात् दधिकांदौ श्रीकृष्ण के जन्म लेने के उपलक्षमें बडे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। भगवान के श्रीविग्रहपर हल्दी, दही, घी, तेल, गुलाबजल, मक्खन, केसर, कपूर आदि चढाकर ब्रजवासीउसका परस्पर लेपन और छिडकाव करते हैं। वाद्ययंत्रोंसे मंगलध्वनिबजाई जाती है। भक्तजन मिठाई बांटते हैं। जगद्गुरु श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव नि:संदेह सम्पूर्ण विश्व के लिए आनंद-मंगल का संदेश देता है।

साभार : विकिपीडिया

!! कृष्ण जन्माष्टमी की आप सभी को बधाइयाँ !!